SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ # दो शब्द प्रत्येक दर्शन या धर्म के प्रवर्तक की एक आधारभूत विशेष दृष्टि रही है। भगवान बुद्ध की दृष्टि मध्यम प्रतिपदा दृष्टि है जिसमें वे संवेदनाद्वैत, चित्राद्वैत, विज्ञानाद्वैत आदि को सिद्ध करते हैं। शंकराचार्य की अद्वैत दृष्टि है, वे ब्रह्माद्वैत आदि को सिद्ध करते हैं। सांख्यमत पुरुष और प्रकृति को मानता है। ये जितने भी दार्शनिक हैं, वे एकान्तवादी हैं। उनका मत प्रत्यक्ष प्रमाण, आगम प्रमाण एवं युक्ति (अनुमान) प्रमाण से बाधित होता है अतः वह अवास्तविक है, परमार्थभूत नहीं है। जैनदर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की भी वस्तु को सिद्ध करने के लिए एक विशेष दृष्टि रही है वह है अनेकान्तवाद। जैन धर्म का सारा आचार-विचार उसी के आधार पर है इसीलिए जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहलाता है और अनेकान्तवाद तथा जैनदर्शन परस्पर पर्यायवाची जैसे होगये हैं। वस्तु सत् ही है वा असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार की मान्यता को एकान्त कहते हैं और वस्तु को अपेक्षा के भेद से सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि मानना अनेकान्तवाद है। यह अनेकान्तवाद प्रत्येक प्राणी के अनुभवगोचर है क्योंकि सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, सर्वथा सत् अथवा सर्वथा असत् में कोई क्रिया नहीं होती। अनादिकालीन इस वस्तुस्थिति को समझाने के लिए तथा वस्तु का यथार्थ ज्ञान कराने के लिए पूर्वज गणधर देव, कुन्दकुन्दाचार्य, पूज्यपादस्वामी, अकलंक देव, . समन्तभद्राचार्य, माणिक्यनन्दी आदि अनेक आचार्यों ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। वास्तव में, अनेकात्मक अर्थ का प्ररूपक स्याद्वाद है। उसी को फलितवाद, सप्तभंगीवाद और नयवाद कहते हैं। ये तीनों वाद जैन न्याय की विशेष देन हैं क्योंकि जैन दर्शन अनेकान्तवादी है और अनेकान्त का प्ररूपण स्याद्वाद के बिना नहीं हो सकता है। किन्तु स्याद्वाद के द्वारा प्ररूपित अनेकान्त वस्तु की जब कोई वक्ता या ज्ञाता किसी एक धर्म की मुख्यता से चर्चा करता है तो अनेकात्मक धर्म का कथन एक साथ एक समय में नहीं हो सकता अत: उस समय एक धर्म की मुख्यता और दूसरे धर्मों की गौणता होती है। इनमें एक दृष्टि के मुख्य और अन्य दृष्टियों के गौण होते हुए भी वे धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं अपितु सापेक्ष हैं। यदि निरपेक्ष हैं तो मिथ्या हैं। अत: सापेक्ष कथन सम्यक् है और निरपेक्ष कथन मिथ्या है। इस सापेक्ष कथन को ही नय विवक्षा कहते हैं। यह नय विवक्षा जैन दर्शन की विशेषता है जो इतर दर्शनों में नहीं है। - अतः अन्यान्य दार्शनिक वस्तु के स्वरूप का वास्तविक निर्णय नहीं कर पाते। बौद्ध वस्तु को क्षणिक मानते हैं, सांख्य वस्तु को नित्य मानता है अत: इनके मत में वस्तु के वास्तविक स्वरूप का भान नहीं होता। ... जैन दर्शन एक द्रव्य पदार्थ को ही मानता है। उसके मानने पर दूसरे पदार्थ के मानने की आवश्यकता नहीं होती। गुण और पर्याय के आधार को द्रव्य कहते हैं। ये गुण और पर्यायें इस द्रव्य के ही आत्मस्वरूप हैं अत: ये द्रव्य से पृथक् नहीं हो सकते हैं। लक्षण, संज्ञा, प्रयोजन आदि की अपेक्षा इनमें भेद होते हुए भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा भेद नहीं है। जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुण हैं और
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy