________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 95 यत्रंद्रियमनोध्यक्षं योगिप्रत्यक्षमेव वा। लैंगिकं वा श्रुतं तत्र वृत्तेर्मानांतरं भवेत्॥१७२॥ प्रत्यक्षादनुमानस्य मा भूत्तर्हि विभिन्नता। तदर्थे वर्तमानत्वात् सामग्रीभित्समा श्रुतिः॥१७३॥ न हि विषयस्य भेदात् प्रमाणभेदः प्रत्यक्षादनुमानस्याभेदप्रसंगात् / न च तत्ततो भिन्नविषयं सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वात् प्रत्यक्षमेव सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयं न पुनरनुमानं तस्य सामान्यविषयत्वादितिचेत् ततः कस्यचित्क्वचित्प्रवृत्त्यभावप्रसंगात् / सर्वोर्थक्रियार्थी हि प्रवर्तते न च सामान्यमशेषविशेषरहितं कांचिदर्थक्रियां संपादयितुं समर्थं तत्तु ज्ञानमात्रस्याप्यभावात्। सामान्यादनुमिताद्विशेषानुमानात् प्रवर्तकमनुमानमिति चेत् , न अनवस्थानुषंगात्। विशेषेपि ह्यनुमानं तत्सामान्यविषयमेव परं विशेषमनुमाय यदेव प्रवर्तकं तत्राप्यनुमानं तत्सामान्यविषयमिति सुदूरमपि गत्वा जिस बौद्ध के यहाँ इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष और स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ये चार प्रत्यक्ष माने गये हैं, अथवा तीन प्रकार से हेतुओं से उत्पन्न हुआ अनुमान माना गया है, उसके उनमें प्रवृत्ति कराने वाला होने से श्रुतज्ञान भी तीसरा भिन्न प्रमाण हो जाता है। यदि सामग्री के भेद से प्रमाण के भेद को न मानकर प्रमेय के भेद से प्रमाण का भेद मानोगे तब तो बौद्धों के यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुमान प्रमाण का भेद नहीं होगा, क्योंकि प्रत्यक्ष के द्वारा ही जाने गये वस्तुभूत क्षणिकपनरूप विषयों में अनुमान प्रमाण प्रवृत्ति करता है। यदि सामग्री के भेद से प्रत्यक्ष और अनुमान का भेद माना जायेगा तो श्रुतज्ञान भी अनुमान के समान सामग्री भेद होने से भिन्न प्रमाण हो जायेगा अर्थात्-प्रत्यक्ष ज्ञान की इन्द्रिय आदिक सामग्री है और अनुमान की हेतु, व्याप्ति, स्मरण आदि भिन्न सामग्री है। उसी के समान शब्दसंकेत स्मरण आदिक सामग्री भी श्रुतज्ञान की पृथक् ही है॥१७२-१७३॥ विषय के अभेद से प्रमाण का भेद मानना ठीक नहीं है। .. अन्यथा प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुमान के भेद हो जाने का प्रसंग आयेगा। अथवा विषय के भेद से प्रमाण में भेद मानना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष से अनुमान के अभेद का प्रसंग आता है। वह अनुमान प्रमाण उस प्रत्यक्ष से भिन्न विषय वाला नहीं है, क्योंकि सामान्य विशेषरूप वस्तु को दोनों ही प्रमाण विषय करते हैं। प्रत्यक्ष ही सामान्य विशेषरूप वस्तु को विषय करता है, और अनुमान सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु को विषय नहीं करता है वह अनुमान केवल सामान्य को ही विषय करता है, ऐसा कहने पर तो उस अनुमान से किसी की कहीं भी प्रवृत्ति नहीं हो सकने का प्रसंग आवेगा अर्थात्अभिलाषुक जीवों की प्रवृत्ति केवल सामान्य में नहीं हो सकती है विशेषों के बिना कोरा सामान्य असत् है, (जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के अतिरिक्त सामान्य मनुष्य कोई वस्तु नहीं है)। अर्थक्रिया को चाहने वाले सभी मनुष्य अर्थों में प्रवृत्ति करते हैं किन्तु सम्पूर्ण विशेषों से रहित होता हुआ सामान्य किसी भी अर्थक्रिया को बनाने के लिए समर्थ नहीं है। उसमें ज्ञान मात्र का भी अभाव है अर्थात् वह विशेषरहित सामान्य सुलभता से स्वकीय ज्ञान करा देने रूप अर्थक्रिया को भी नहीं कर सकता