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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 28 तस्यानुपपत्तेः / स्वयंबुद्धश्रुतज्ञानमपरोपदेशमिति चेन्न, तस्य जन्मान्तरोपदेशपूर्वकत्वात् तज्जन्मापेक्षया स्वयंबुद्धत्वस्याविरोधात् / देशविषयं मत्यवधिमन:पर्ययज्ञानं निसर्गादेरुत्पद्यत इति द्वितीयविकल्पोपि न श्रेयान् तस्याधिगमजत्वासंभवात् द्विविधहेतुकत्वाघटनात् / किंचिनिसर्गादपरमधिगमादुत्पद्यत इति ज्ञानसामान्य द्विविधहेतुकं घटत एवेति चेत् न, दर्शनेपि तथा प्रसंगात् / न चैतद्युक्तं प्रतिव्यक्ति तस्य द्विविधहेतुकत्वप्रसिद्धेः। यथा ह्यौपशमिकं दर्शनं निसर्गादधिगमाच्चोत्पद्यते तथा क्षायोपशमिकं क्षायिकं चेति सुप्रतीतं। चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावान्न द्विविधहेतुकत्वं संभवतीति न त्रयात्मको मार्गः संबध्यते, अत्र दर्शनमात्रस्यैव निसर्गादधिगमाद्वोत्पत्त्यभिसंबंधघटनात्। नन्वेवं तच्छब्दोनर्थकः सकल श्रुतज्ञान को स्वभाव से उत्पन्न हुआ कहते हो, तो यह भी असिद्ध है। अर्थात्-श्रुतज्ञान भी निसर्गज नहीं है क्योंकि परोपदेश (गुरु के उपदेश) के अभाव में श्रुतज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता। बोधित बुद्ध का ज्ञान परोपदेश के बिना नहीं होता, परन्तु स्वयंबुद्ध का ज्ञान तो परोपदेश के बिना होता है? यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, स्वयंबुद्ध के ज्ञान की उत्पत्ति भी जन्मान्तर में प्राप्त पर के उपदेश पूर्वक ही होती है परन्तु, इस जन्म की अपेक्षा उनको स्वयंबुद्ध (परोपदेश के बिना ज्ञानी) कहने में कोई विरोध नहीं है अतः स्वयंबुद्ध मुनि के उत्पन्न हुआ ज्ञान भी अधिगमज ही है, निसर्गज नहीं। नियत विषयक (देश विषयक) मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान निसर्ग से उत्पन्न होते हैं, यह दूसरा विकल्प भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि देशविषयक ज्ञान के अधिगमज की असंभवता होने से द्विविध हेतु घटित नहीं हो सकते। अर्थात् मतिज्ञानादि के भी निसर्गज और अधिगमज़ घटित नहीं होता है। कोई ज्ञान (केवलज्ञान और श्रुतज्ञान) अधिगम से और कोई ज्ञान (मति, अवधि, मन:पर्यय) निसर्ग से उत्पन्न होता है अत:ज्ञान सामान्य की अपेक्षा ज्ञान में दो हेतु से उत्पन्न होना घटित हो जाता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने से यह प्रसंग सम्यग्दर्शन में भी आयेगा। अर्थात्-सम्यग्दर्शन भी कोई निसर्ग से और कोई अधिगम से उत्पन्न हो जायेगा, परन्तु ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की प्रत्येक व्यक्ति में (प्रकटता में) दो हेतुओं से सिद्धि है-जैसे औपशमिक सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम इन दो कारणों से उत्पन्न होता है, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम इन हेतुओं से उत्पन्न होते हैं-ऐसी सुप्रतीति होती है। पुनः चारित्र तो अधिगमज ही है, क्योंकि उस चारित्र की उत्पत्ति श्रुतज्ञान पूर्वक होती है। अर्थात् ज्ञान के द्वारा चारित्र के स्वरूप को जानकर के ही उसका पालन किया जाता है। चारित्र विशेष (सामायिक, छेदोपस्थापना आदि) की उत्पत्ति के भी निसर्गजत्व का अभाव है। इसलिए चारित्र की उत्पत्ति में निसर्ग और अधिगम ये दो हेतुकत्व (हेतुपना) संभव नहीं हैं। त्रयात्मक मोक्षमार्ग भी दो हेतुओं से सम्बन्धित नहीं है। इसलिए यहाँ सम्यग्दर्शन के ही निसर्ग और अधिगम से उत्पत्ति का सम्बन्ध घटित होता है अतः 'तत्' शब्द सम्यग्दर्शन का परामर्शा है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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