________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 384 च यथा सत्त्वेनाधिगम्यते संख्यादिभिश्च तथा संक्षेपेणाजीवादयोपीहैव / व्यासेन तु गत्यादिमार्गणासु सामान्यतो विशेषतश्च जीववदजीवादयोऽन्यत्र कीर्तिता विज्ञातव्याः / / इत्युद्दिष्टौ त्र्यात्मके मुक्तिमार्गे सम्यग्दृष्टेर्लक्षणोत्पत्तिहेतून् / तत्त्वन्यासौ गोचरस्याधिगंतुं हेतु नानीतिकश्चानुयोगः॥१॥ इति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयमाह्निकम् / विस्तार से गति आदि मार्गणाओं में, मिथ्यादर्शन आदि गुणस्थानों में भी सत् संख्या आदि का निरूपण करना चाहिए। जीव के समान अजीव, आस्रव आदि का कथन अन्य सर्वार्थसिद्धि, गोम्मट्टसार आदि ग्रन्थों से जानना चाहिए। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप तीन स्वरूप मोक्षमार्ग का उद्देश (कथन) कर चुकने पर पुन: सम्यग्दर्शन का लक्षण और उसकी उत्पत्ति के कारणों का प्रदर्शन कराने वाले दो सूत्रों का कथन किया। तदनन्तर जीवादि सात तत्त्वों का और निक्षेपों का कथन सूत्र में किया। उसके पश्चात् रत्नत्रय के विषय को समझाने के वा जानने के कारणभूत और लौकिक शास्त्रीय अनेक नीतियों से युक्त यह अनुयोग तीन सूत्रों के द्वारा कहा गया है। यह आठ सूत्रों का संक्षिप्त कथन है।। इस प्रकार श्री विद्यानन्द स्वामी विरचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार नामक ग्रन्थ में प्रथम अध्याय सम्बन्धी दूसरा आह्निक पूर्ण हुआ / .