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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 363 वस्तुन्येकत्र दृष्टस्य परस्परविरोधिनः / वृत्तिधर्मकलापस्य नोपालंभाय कल्पते // 21 // स्याद्वादविद्विषामेव विरोधप्रतिपादनात् / यथैकत्वं पदार्थस्य तथा द्वित्वादि वांछताम् // 22 // ये खलु पदार्थस्य येन रूपेणैकत्वं तेनैव द्वित्वादि वांछंति तेषामेव स्याद्वादविद्विषां विरोधस्य प्रतिपादनात्। “विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषां" इति वचनात् न स्याद्वादिनामेकत्वादिधर्मकलापस्य परस्परं प्रतिपक्षभूतस्य वृत्तिरेकत्रैकदा विरुध्यते तथा दृष्टत्वात् / ततो नोपालंभः प्रकल्पनीयः॥ स्याद्वादिनां कथं न विरुद्धता उभयैकात्म्याविशेषादिति चेत् ;येनैकत्वं स्वरूपेण तेन द्वित्वादि कथ्यते। नैवानंतात्मनोऽर्थस्येत्यस्तु क्वेयं विरुद्धता // 23 // द्वितीयाद्यनपेक्षेण हि रूपेणार्थस्यैकत्वं तदपेक्षेण द्वित्वादिकमिति दूरोत्सारितैव विरुद्धताऽनयोः प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले परस्पर विरोधी धर्मों के समूह का एक वस्तु में रहने का उलाहना देना कल्पित नहीं है (अर्थात् स्याद्वाद सिद्धान्त में एक में परस्पर विरोधी धर्म कैसे रहते हैं-ऐसा उलाहना नहीं दे सकते।) प्रत्युत् स्याद्वाद से द्वेष रखने वाले के ही विरोध का प्रतिपादन (विरोध आता) है क्योंकि स्याद्वाद से द्वेष रखने वाले जिस प्रकार से पदार्थ का एकत्व मानते हैं उसी प्रकार से दो तीन आदि संख्या का सद्भाव मानते हैं परन्तु स्याद्वादियों के सिद्धान्त में भिन्न-भिन्न स्वभावों से एकत्व, द्वित्व आदि संख्याओं की वृत्ति मानी गई है, अतः स्याद्वाद में विरोध नहीं है।।२१-२२॥ __जो प्रतिवादी नियम से पदार्थ का जिस स्वरूप से एकत्व मानते हैं उसी स्वरूप से दो, तीन आदि रूप संख्या की वाञ्छा करते हैं, उन्हीं स्याद्वाद से द्वेष रखने वाले वादियों के विरोध दोष कहा जाता है। श्री समन्तभद्राचार्य ने देवागमस्तोत्र में कहा है कि “स्याद्वाद सिद्धान्त के साथ विरोध रखने वाले कान्तवादियों के एकत्व, अनेकत्व, उभयत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि का एक पदार्थ में रहने का विरोध है," किन्तु स्याद्वादियों के सिद्धान्तानुसार परस्पर प्रतिपक्षीभूत एकत्व आदि धर्मों के समूह की एक पदार्थ में एक साथ एक समय में वृत्ति होना विरुद्ध नहीं है क्योंकि इस प्रकार एक ही वस्तु में एक समय में नित्य, अनित्य, सत्, असत् , एक, अनेक आदि अनेक धर्मों का आधार दृष्टिगोचर हो रहा है अतः स्याद्वाद सिद्धान्त में विरोध का उलाहना नहीं दे सकते। __शंका : स्याद्वाद सिद्धान्त में परस्पर विरोधी दो धर्मों का एक पदार्थ में रहना विरोधी क्यों नहीं है ? क्योंकि स्याद्वाद और एकान्त सिद्धान्त में कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् उभय (दोनों ही) एक स्वरूप हैं। समाधान : जैनाचार्य कहते हैं स्याद्वाद सिद्धान्त में जिस स्वरूप से एकत्व है, उस स्वरूप से द्वित्व आदि का कथन नहीं किया जाता है। क्योंकि अनन्त धर्मात्मक वस्तु में अन्य धर्मों की अपेक्षा परस्पर विरुद्ध धर्मों के रहने में विरुद्धता कैसे आ सकती है-अर्थात् नहीं आ सकती जैसे एक ही वस्तु द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य है, इसमें कोई विरोध नहीं है।॥२३॥ द्वितीय आदि की अपेक्षा नहीं करके कथन करने पर पदार्थत्व के एकत्वपना है और द्वितीय आदि
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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