________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 351 कार्यकारणभावस्याभावे संविदकारणा। सती नित्यान्यथा व्योमारविंदादिवदप्रमा॥९॥ सर्वथैवाफलत्वाच्च तस्याः सिध्यन्न वस्तुता। सफलत्वे पुनः सिद्धा कार्यकारणतांजसा // 10 // न संविदकारणा नापि सकारणा नाफला नापि सफला यतोऽयं दोषः / किं तर्हि ? संवित्संविदेवेति चेत् , नैवं परमब्रह्मसिद्धेः संविन्मात्रस्य सर्वथाप्यसिद्धेः समर्थनात्॥ वाच्यवाचकताप्येवमिष्टानिष्टात्मनोः स्वयम् / साधनाद्दूषणाच्चापि वाग्भिः सिद्धान्यथा न तत् // 11 // यदि संवेदनाद्वैत वादी कार्य-कारण भाव को स्वीकार नहीं करते हैं तो कार्य-कारण भाव के अभाव में संवेदन सत् अकारण हो जाने से नित्य हो जायेगा क्योंकि जो अकारण होता है वह नित्य होता है अन्यथा (यदि संवेदन के कार्य-कारण भाव नहीं माना जायेगा तो) वह संवेदन आकाश के फूल के समान प्रमा रहित (ज्ञान का विषय नहीं) होने से असत् हो जायेगा॥९॥ यदि संवेदना सर्वथा फल रहित है तो उस संवेदना के वस्तुपना सिद्ध नहीं हो सकता अर्थात् अर्थक्रिया को करने वाले पदार्थ ही वस्तुभूत माने गये हैं। यदि संवेदना को फल सहित स्वीकार करते हैं तो निर्दोष कार्य-कारण भाव सिद्ध हो जाता है अर्थात् उत्तर फल को उत्पन्न करना ही संवेदना का कार्य है॥१०॥ . भावार्थ : प्रत्येक द्रव्य अनादि काल से अनन्त कालपर्यन्त ध्रौव्य रहकर भी निरंतर परिणमन करता रहता है। उस परिणमन में पूर्ववर्ती पर्याय उपादान कारण है और उत्तरवर्ती पर्याय कार्य है। यह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का क्रम अनादि काल से है और यही द्रव्य का द्रव्यत्व है। संवेदन भी आत्मा के ज्ञान गुण की पर्याय होने से, उत्पाद व्यय से युक्त होने से कारण-कार्य भाव सहित है। बौद्ध कहता है-संवेदना अकारण भी नहीं होती है और सकारण भी नहीं होती है, सफला भी नहीं है और निष्फला भी नहीं जिससे यह दोष लागू हो सके। प्रश्न : संवित्ति का स्वरूप क्या है ?, उत्तर : संविद् तो संविद् ही है, जैसे स्वानुभूति स्वानुभूति ही है ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार के कथन से परम ब्रह्म की सिद्धि हो सकती है अर्थात् बौद्ध के समान ब्रह्मवादी भी कह सकते हैं कि ब्रह्म, ब्रह्म ही है अत: शुद्ध संवेदना की सिद्धि सर्वथा नहीं हो सकती है-ऐसा समर्थन कर दिया है। .. तथा संवेदनाद्वैतवादियों के वाच्य-वाचक भाव भी सुलभता से सिद्ध हो जाता है क्योंकि इष्ट स्वरूप और अनिष्ट स्वरूप पदार्थों के साधन और दूषण देने का प्रयोग वचनों के द्वारा ही किया जाता है अर्थात् इष्ट को सिद्ध करने के लिए साधन (हेतु) का प्रयोग वचन के द्वारा ही होता है और अनिष्ट को दूषण देना भी वचन के द्वारा ही होता है। अन्यथा-(वाच्य-वाचक भाव के बिना) वक्ता इष्टसाधन और अनिष्ट दूषण का प्रतिपादन कर प्रतिपाद्य (शिष्य) को समझा नहीं सकते हैं अत: वाच्य-वाचक भाव सिद्ध है॥११॥