________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 324 तिष्ठत्कथमसंबंध: ? परस्य ह्यनुत्पन्नस्याभावेपि पूर्वत्र वर्तमानः पूर्वस्य च नष्टत्वेनाभावेपि परत्र वर्तमानोसावेकवृत्तिरेव स्यात् / पूर्वत्र वर्तमानः परमपेक्षते परत्र च तिष्ठत्पूर्वमतो संबंधो द्विष्ठ एवान्यनिस्पृहत्वाभावादिति चेत् कथमनुपकारं तथोत्तरमपेक्ष्यतेति प्रसंगात्। सोपकारकमपेक्षत इति चेत नासतस्तदोपकारकत्वायोगात् / यदि पुनरेकेनाभिसंबंधात्पूर्व-परयोरकार्यकारणभावस्तदा सव्येतरविषाणयोः स स्यादेकेन द्वित्वादिनाभिसंबंधात् / तथा च सिद्धसाध्यता / द्विष्ठो हि कश्चिदसंबंधो नातोन्यत्तस्य लक्षणं येनाभिमतसिद्धिः / यदि पुन: पूर्वस्याभाव एव यो भावोऽभावेऽभावस्तदुपधियोगो-कार्यकारणभावस्तदा तावेव भावाभावावयोगोपाधी किं नोऽकार्यकारणभाव: स्यात् तयोर्भेदादिति चेत्, शब्दस्य नियोक्तृसमाश्रितत्वेन भेदेप्यभेदवाचिनः प्रयोगाभ्युपगमात् / स्वयं हि लोकोयमेकमदृष्टस्य दर्शनेप्यपश्यंस्तददर्शने च अपेक्षा क्यों करेगा ? अन्यथा (यदि अनुपकारक पदार्थ की अपेक्षा करेगा तो) अतिप्रसंग दोष आता है। "तथा उपकार करने वाले उत्तर पदार्थ की पूर्व पदार्थ अपेक्षा करता है" ऐसा कह नहीं सकते ? क्योंकि उस समय अविद्यमान पदार्थों के उपकारकत्व का अयोग है। यदि किसी एक पदार्थ से पूरा सम्बन्ध हो जाने के कारण पूर्व उत्तर पदार्थों में, अकार्यकारण भाव माना जायेगा तो बैल के दायें, बायें सींगों में भी अकार्य कारण भाव हो जाना चाहिए क्योंकि एक का द्वित्व आदि के साथ सम्बन्ध पाया जाता है और ऐसा होने पर सिद्ध साध्यपना ही है अर्थात् इस प्रकार सम्बन्ध पुष्ट हो जाता है। जो कोई भी असम्बन्ध है वह दो आदि पदार्थों में ही है-इससे भिन्न असम्बन्ध का कोई लक्षण नहीं है जिससे कि बौद्धों के अभिमत की सिद्धि हो सकती हो। , “पूर्ववर्ती पदार्थ का अभाव होने पर ही उत्तरवर्ती पदार्थ का सद्भाव है, तथा पूर्ववर्ती पदार्थ का सद्भाव उत्तरवर्ती पदार्थ का अभाव है। उस उपाधि का योग (अर्थात् अयोग विशेषण ही) अकार्यकारण भाव है। बौद्ध के ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा होने पर तो वे (भाव और अभाव ही अयोग विशेषण वाले होकर) अकार्य-कारण भाव क्यों नहीं मान लिये जाते हैं ? अविद्यमान (असत्) असम्बन्ध की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? बौद्ध कहते हैं कि भाव और अभाव के साथ उस अकार्य कारण भाव का विशेष्य विशेषण होने के कारण उनमें भेद है अत: वह अयोग ही अकार्य-कारण भाव नहीं हो सकता। इसके उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द तो प्रयोक्ता के अधीन होकर प्रवृत्त होता है। अर्थात् प्रयोक्ता जिस प्रकार एक अर्थ या अनेक अर्थ वाले शब्द को बोलता है, शब्द वैसा ही अर्थ कह देता है। अत: भेद होने पर भी अभेद को कहने वाले शब्द का प्रयोग करना मान लिया जाता है। अदृष्ट अकार्य के वर्तमान में दर्शन होने पर भी एक अकारण को नहीं देखता हुआ और उसके नहीं दीखने पर भी देखता हुआ लौकिक जन समुदाय व्याख्याताओं के बिना भी ‘यह इसका अकार्य है' और