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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 263 / स्याजीव एव स्यादस्त्येवेति धर्मिमात्रस्य च धर्ममात्रस्य वचनं संभवत्येवेति चेत् न, जीवशब्देन जीवत्वधर्मात्मकस्य जीववस्तुनः कथनादस्तिशब्देन चास्तित्वस्य क्वचिद्विशेष्ये विशेषणतया प्रतीयमानस्याभिधानात् / द्रव्यशब्दस्य भावशब्दस्य चैवं विभागाभाव इति चेन्न, तद्विभागस्य नामादिसूत्रे प्ररूपितत्वात् / येपि हि पाचकोऽयं पाचकत्वमस्येति द्रव्यभावविधायिनोः शब्दयोर्विभागमाहुस्तेषामपि न पाचकत्वधर्मादिविशेष: पाचकशब्दाभिधेयोर्थ: संभवति, नापि पाचकानाश्रित: पाचकत्वधर्म इत्यलं विवादेन / सदादिवाक्यं सप्तविधमपि प्रत्येकं विकलादेशः समुदितं सकलादेश इत्यन्ये, तेपि न युक्त्यागमकुशलास्तथा युक्त्यागमयोरभावात् / सकलाप्रतिपादकत्वात् प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात् / न हि सदादिवाक्यसप्तकं समुदितं सकलार्थप्रतिपादकं "कथञ्चित् जीव ही है, इस प्रकार केवल जीव द्रव्यरूप धर्मी को कहने वाला वचन विद्यमान है। कथञ्चित् अस्ति ही है, इस प्रकार केवल अस्तित्व धर्म मात्र का कहने वाला वाक्य भी संभव है अत: केवल धर्मी के प्रतिपादक वाक्य और केवल धर्म प्रतिपादक वाक्य का निषेध कैसे कर सकते हैं," ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि धर्मी वाचक जीव शब्द से जीवत्व धर्मात्मक (प्राणधारक जीवत्व धर्म से युक्त) जीव वस्तु का कथन किया जाता है। केवल धर्म रहित धर्मी का कथन नहीं हो सकता। धर्म वाचक अस्ति शब्द के द्वारा किसी विशेष्य में विशेषण रूप से प्रतीयमान (प्रतीति में आने वाले) अस्तित्व का निरूपण किया जाता है। केवल अस्तित्व धर्म का निरूपण नहीं हो सकता। . “इस प्रकार कहने पर द्रव्य वाचक शब्द और भाव वाचक शब्दों का विभाग नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्य और भाव दोनों तदात्मक हैं।" ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि द्रव्य और भाव शब्द के विभाग का “नाम स्थापना द्रव्यभावतस्तन्न्यासः" इस सूत्र के कथन में निरूपण कर चुके हैं। जो भी कोई विद्वान् द्रव्यवाचक शब्द और भाव वाचक शब्दों के विभाग को इस प्रकार कहते हैं कि यह पाचक है। वहाँ पाचक (रसोइया) शब्द विशेष जीव द्रव्य वाचक है और पाचकत्व शब्द भाव वाचक है। उनके भी पांचक धर्मत्व से अविशिष्ट केवल पाचक अर्थ पाचक शब्द का वाच्य हो ही नहीं सकता और पाचक रूप आधार से रहित अकेला पाचकत्व धर्म भी कोई पदार्थ नहीं है अतः अधिक विवाद करने से कोई प्रयोजन नहीं है। “अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों को कहने वाले सातों भी वाक्य यदि प्रत्येक पृथक्-पृथक् कहे जाते हैं तब तो विकलादेश है और जब सातों समुदित होकर कहे जाते हैं तब सकलादेश कहे जाते हैं।" ऐसा कोई अन्य विद्वान् कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाले भी युक्ति और आगम में कुशल नहीं हैं क्योंकि इस प्रकार की युक्ति और आगम का अभाव है। सकल पदार्थ का प्रतिपादक न होने के कारण पृथक्-पृथक् अस्तित्व आदि को कहने वाला वाक्य विकलादेश है, यह युक्ति समीचीन नहीं है क्योंकि इस प्रकार कहने पर तो सातों वाक्यों के समुदाय को भी विकलादेशत्व का प्रसंग आता है, क्योंकि अस्तित्व आदि सातों वाक्य समुदित होकर भी सम्पूर्ण वस्तुभूत अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं। सम्पूर्ण द्वादशांग शास्त्रों को ही वस्तु के सम्पूर्ण अंशों को उस प्रकार प्रतिपादित करना प्रसिद्ध है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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