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________________ परिशिष्ट-४०३ को भी स्थिर और नित्य मानता है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होता अपितु अपने कर्मों के अनुसार शरीर धारण करता रहता है। जितने व्यक्ति हैं, उतनी ही आत्माएँ हैं। वे ही बन्धन में आती हैं और उन्हीं का मोक्ष होता है। ___मुक्तिप्राप्ति के दो साधन हैं- 1. निष्काम कर्म और 2. आत्मिक ज्ञान / इन दोनों साधनों के पूर्ण हो जाने पर सब पूर्वकर्म क्षीण हो जाते हैं और मनुष्य मुक्त हो जाता है। मुक्ति दुःखों से अत्यन्ताभाव का नाम है, किसी सत्तात्मक अवस्था का नाम नहीं। वेदान्त दर्शन 'वेदान्त' शब्द का अर्थ है- वेदस्य अन्तः, अन्तिमो भाग इति वेदान्तः। वेद के अन्तिम भाग (उपनिषदों) का नाम वेदान्त है। उपनिषद् ही वेद के अन्तिम सिद्धान्त को खोलते हैं। उपनिषदों के ज्ञान को व्यवस्था में लाने के लिए ही इस दर्शन का निर्माण हुआ है। ब्रह्मसूत्र (वेदान्त सूत्र) के रचयिता महर्षि . बादरायण व्यास है। शंकर, रामानुज और मध्व ये ब्रह्मसूत्र के प्रसिद्ध भाष्यकार हैं। मीमांसकों की भाँति वेदान्ती भी छह प्रमाण मानते हैं। वेदान्त में ब्रह्म, जीव और प्रकृति इन तीन का वर्णन है। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र तत्त्व है। जीव और प्रकृति ये दोनों ब्रह्म के आधीन हैं। जीव नित्य है, न जन्मता है और न मरता है। जीवात्मा अणु है, क्योंकि शरीर से निकलना, परलोक में जाना और इस लोक में आना अणु में ही सम्भव है, विभु में नहीं। जीवात्मा कर्ता है। जीव निष्क्रिय नहीं क्रियाशील है। यह विज्ञानात्मा पुरुष देखने वाला, सुनने वाला, समझने वाला और करने वाला है। इस संसार में जो नानात्मकता दृष्टिगोचर होती है, वह सब मायिक (अविद्याजनित) है। एक ही तत्त्व की सत्ता स्वीकार करने के कारण यह दर्शन अद्वैतवादी है। . वेदान्तियों ने मुख्य रूप से 'यह सब ब्रह्म है, इस जगत् में नाना कुछ भी नहीं है, सब उसी की पर्यायों को देखते हैं, उसको कोई भी नहीं देखता' ऐसी श्रुति (वेद) के आधार पर ब्रह्म की सिद्धि की है। तथा इसके समर्थन में प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण की दुहाई भी दी हैं। # चार्वाक दर्शन इस दर्शन का प्राचीन नाम लोकायत है। सामान्यजन की तरह प्रवृत्ति करने के कारण यह नाम पड़ा। जनता को प्रिय लगने वाली सुन्दर बातों के कहने के कारण अथवा आत्मा, परलोक आदि को चर्वण कर जाने के कारण इनका नाम चार्वाक हुआ। बृहस्पति को इस दर्शन का संस्थापक माना जाता है। अतः यह बार्हस्पत्य दर्शन भी कहा जाता है। चार्वाकों का प्रसिद्ध सिद्धान्त है यावजीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् / भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥ . (जब तक जिओ सुख से जिओ, ऋण लेकर घी पिओ। ऋण चुकाने की चिन्ता भी मत करो क्योंकि शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः आगमन (जन्म) नहीं होता है।)
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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