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________________ परिशिष्ट-३९६ * जातिदोष : असत् उत्तर को जाति कहते हैं। 'असदुत्तरं जातिः। दोषसम्भवात्प्रयुक्त स्थापनाहेतौ दूषणाशक्तमुत्तरं जातिमाहुः।' दोष की सम्भावना से जाति नामक दूषणरूप उत्तर होता है। निगमन : ‘प्रतिज्ञाया उपसंहारः साध्यधर्मविशिष्टत्वेन प्रदर्शनं निगमनमित्यर्थः' प्रतिज्ञा का उपसंहार अर्थात् साध्यधर्म विशिष्टता के साथ (कि धूमवाला होने से यह अनिवाला है) प्रतिज्ञा का दुहराना निगमन है। * पक्ष : साध्यधर्म से विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं। अथवा जहाँ साध्य को सिद्ध करना अभिप्रेत है उस अधिकरण या धर्मी को पक्ष कहते हैं। परम्परा सम्बन्ध : नैयायिकों ने सम्बन्ध दो प्रकार का माना है- जिसके साथ इन्द्रियों का व्यवधान रहित सम्बन्ध होता है, वह साक्षात् सम्बन्ध है, जैसे घट, पट आदि के जानने में इन्द्रियों का सम्बन्ध। जिसके साथ इन्द्रियों का, व्यवधान डालकर सम्बन्ध होता है, वह परम्परा सम्बन्ध है जैसे चक्षु का सम्बन्ध घट से, फिर घट में रहने वाले रूप से। परस्पराश्रयदोष : अन्योन्याश्रय दोष - आपस में एक-दूसरे को सिद्ध किया जाय तो परस्पराश्रय या अन्योन्याश्रय दोष होता है। जैसे श्लोकवार्तिक का प्रामाणिकपना गोम्मटसार से और गोम्मटसार का / प्रामाणिकपना श्लोकवार्तिक से माना जाय तो अन्योन्याश्रय दोष होगा। परार्थानुमान : ‘परार्थं तु तदर्थपरामर्शिवचनाजातम्' स्वार्थानुमान के विषयभूत अर्थ का परामर्श करने वाले वचनों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे परार्थानुमान कहते हैं। अर्थात् स्वयं अनुमान से साध्य का निश्चय कर दूसरों को समझाने के लिए बोले गये वचनों से उत्पन्न ज्ञान परार्थानुमान है। शिष्य का ज्ञान परार्थानुमान * परीक्षा : अनेक युक्तियों की सम्भावना में प्रबलता और दुर्बलता का विचार करना परीक्षा है। * प्रतिज्ञा : पक्ष में साध्य का उल्लेख करने को प्रतिज्ञा कहते हैं। अथवा साध्य और पक्ष के कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं। प्रत्यभिज्ञान : वर्तमान का प्रत्यक्ष और पूर्वदर्शन का स्मरण है कारण जिसमें- ऐसे जोड़ रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रमाण : 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्'- स्व अर्थात् अपने आपके और अपूर्वार्थ अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण से जाना नहीं है, ऐसे पदार्थ के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। अथवा जिसके द्वारा संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित वस्तुतत्त्व जाना जाय वह प्रमाण कहलाता है। प्रमाणसंप्लव : एक प्रमेय में विशेष, विशेषांशों को जानने के लिए अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति प्रमाणसंप्लव है। जैसे एक ही अग्नि आगमप्रमाण, अनुमानप्रमाण और प्रत्यक्षप्रमाण से जानी जाती है। प्रयोजनवाक्य : आगम का फल सूचित करने वाले वाक्य को प्रयोजनवाक्य कहते हैं। * लक्षण : परस्पर मिली हुई वस्तुओं के पृथक् करने के हेतु को लक्षण कहते हैं।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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