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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 386 सोप्यन्यस्मादनेकांतादित्यनवस्थानात् कुतः प्रकृतानेकांतसिद्धिः? सुदूरमप्यनुसृत्यानेकांतस्यैकांतात्प्रवृत्तौ न सर्वस्यानेकांतात् सिद्धिः। 'प्रमाणार्पणादनेकांत' इत्यनेकांतोप्यनेकांतः कथमवतिष्ठते? प्रमाणस्यानेकांतात्मकत्वेनानवस्थानस्य परिहर्तुमशक्तेरेकांतात्मकत्वे प्रतिज्ञाहानिप्रसक्तेः।। नयस्याप्येकांतात्मकत्वे अयमेव दोषोऽनेकांतात्मकत्वे सैवानवस्थेति केचित् / तेऽप्यतिसूक्ष्मेक्षिकांतरितप्रज्ञाः, प्रकृतानेकांतसाधनस्यानेकांतस्य प्रमाणात्मकत्वेन सिद्धत्वादभ्यस्तविषयेऽनवस्थाद्यनवतारात्, तथा तदेकांतसाधनस्यैकांतस्य सुनयत्वेन स्वतः प्रसिद्ध नवस्था प्रतिज्ञाहानिर्वा संभवतीति निरूपणात् / ततः सूक्तं 'शून्योपप्लववादेऽपि नानेकांताद्विना स्थिति' रिति। ग्राह्यग्राहकतैतेन बाध्यबाधकतापि वा। कार्यकारणतादिर्वा नास्त्येवेति निराकृतम् // 148 // यदि प्रमाण को एकान्त स्वरूप मानते हो तो 'सर्व अनेकान्त स्वरूप है' इस प्रतिज्ञा की हानि का प्रसंग आता है। यदि नय को भी एकान्तात्मक स्वीकार करते हैं तो इसमें भी अनवस्था और प्रतिज्ञा-हानि का प्रसंग आता है। अर्थात् नय की अपेक्षा मान लेने पर 'सर्व अनेकधर्मात्मक है' इस प्रतिज्ञा की हानि होती है तथा नय की अपेक्षा अनेकान्तात्मक स्वीकार करने पर अनवस्था दोष आता है। इस प्रकार कोई (एकान्तवादी) कहता अब जैनाचार्य इसका समाधान करते हैं - इस प्रकार अनेकान्तवाद के प्रति आक्षेप करने वाले एकान्तवादी भी अति सूक्ष्म पदार्थों को देखने में कारणभूत विचारशालिनी बुद्धि से रहित हैं। क्योंकि इस प्रकरण में स्थित अनेकान्त की सिद्धि अनेकान्त से ही होती है। और प्रमाणस्वरूप अनेकान्त सिद्ध है। अर्थात् प्रमाण से तत्त्वों का विचार करने पर अनेकान्त ही प्रतीत होता है। जिन विषयों का बार-बार अभ्यास हो चुका है, उनमें अनवस्था, अन्योऽन्याश्रय, अनैकान्तिक आदि दोषों का अवतार (प्रादुर्भाव) नहीं होता है। अर्थात् जैसे अभ्यस्त (परिचित नगर आदि में) दशा में शीतल वायु, पुष्पगन्ध आदि से जल में प्रामाण्य जान लिया जाता है, वैसे ही अभ्यास दशा में अनेक धर्म वाले प्रमाण से अनेकान्त की सिद्धि हो जाती है। वैसे ही उस एकान्त को सिद्ध करने वाले समीचीन एकान्त की भी परस्पर सापेक्ष सुनयों के द्वारा स्वतः प्रसिद्धि होने से प्रतिज्ञाहानि दोष संभव नहीं है। क्योंकि नय से एकान्त का कथन करना इष्ट है, प्रमाण और युक्ति से अबाधित है। ऐसा स्याद्वाद सिद्धान्त में निरूपित है। अर्थात् एकान्त भी परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मों के साथ ही सिद्ध होता है। अत: 'शून्यवाद और तत्त्वोपप्लववाद में भी अनेकान्त के बिना सिद्धि नहीं होती है', एक सौ छयालीसवीं गाथा का यह कथन समीचीन है, निर्दोष है। संवेदनाद्वैत प्रमाणसिद्ध नहीं है शुद्ध संवेदनाद्वैत में ग्राह्य-ग्राहकता, बाध्य-बाधकता, कार्य-कारणता तथा वाच्य-वाचक भाव नहीं हैं। अर्थात् न तो कोई वस्तु ग्रहण करने योग्य है (प्रमेय है), न उसको ग्रहण करने वाला ग्राहक (प्रमाण) है। न कोई किसी से बाध्य है और न कोई किसी का बाधक है। न तो कोई किसी का कार्य है, न कोई कारण है। न कोई किसी शब्द का वाच्य है, न कोई अभिधान किसी का वाचक है। इस प्रकार कहने वाले संवेदनाद्वैत का भी अनेकान्त के कथन से खण्डन कर दिया गया है।।१४८ / /
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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