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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 378 न नित्यं नाप्यनित्यत्वं सर्वगत्वमसर्वगम् / नैकं नानेकमथवा स्वसंवेदनमेव तत् // 136 / / समस्तं तद्वचोन्यस्य तन्नाद्वैतं कथंचन / स्वेष्टेतरव्यवस्थानप्रतिक्षेपाप्रसिद्धितः॥१३७॥ - स्वेष्टस्य संवेदनाद्वयस्य व्यवस्थानमनिष्टस्य भेदस्य पुरुषाद्वैतादेर्वा प्रतिक्षेपो यतोऽस्य न . कथंचनापि प्रसिद्ध्यति, ततो नाद्वैत तत्त्वं बंधहेत्वादिशून्यमास्थातुं युक्तमनिष्टतत्त्ववत् / नन्वनादिरविद्येयं स्वेष्टेतरविभागकृत् / सत्येतरैव दुःपारा तामाश्रित्य परीक्षणा // 138 // सर्वस्य तत्त्वनिर्णीते: पूर्वं किं चान्यथा स्थितिः / एष प्रलाप एवास्य शून्योपप्लववादिवत् // 139 // (बौद्ध कहते हैं कि) संवेदन नित्य नहीं है, अनित्य भी नहीं है, वह व्यापक भी नहीं है और अव्यापक भी नहीं है, अथवा वह एक भी नहीं है और अनेक भी नहीं है। वह जो है सो स्वसंवेदन ही है। जो कुछ इसके कहने के लिए विशेषण दिये जाते हैं, वह उन संपूर्ण वचनों के वाच्य से रहित ही है। जितने कुछ वचन हैं, वे सब कल्पित अन्य पदार्थों को कहते हैं। संवेदन तो अवाच्य है। आचार्य : कहते हैं कि बौद्धों का यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकार के कथनों से तो संवेदनाद्वैत की सिद्धि कैसे भी नहीं हो सकती। क्योंकि अपने इष्ट तत्त्व की व्यवस्था करना और अनिष्ट पक्ष का खण्डन करना ये दोनों तो शब्द के बिना अद्वैतवाद में सिद्ध नहीं हो सकते हैं॥१३६-१३७॥ ___ इस संवेदनाद्वैतवादी बौद्धों के दर्शन में अपने इष्ट संवेदनाद्वैत की व्यवस्था करना और अपने अनिष्ट माने गये द्वैत का अथवा पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत तथा चित्राद्वैत का खण्डन करना प्रमाण द्वारा कैसे भी नहीं सिद्ध हो सकता है और बौद्धों के द्वारा स्वीकृत अद्वैतरूप तत्त्व, बंध के कारण, कार्य और मोक्ष के कारण सम्यग्ज्ञान आदि स्वभावों से रहित संवेदनाद्वैत कैसे भी युक्तियों से सहित सिद्ध नहीं हो सकता है। जैसे कि आपको सर्वथा अनिष्ट नित्यादि तत्त्वों की आपके यहाँ प्रमाणों से सिद्धि नहीं होती है। अतः नित्यपक्ष और क्षणिकपक्ष में आत्मा बंध, मोक्ष आदि अर्थ-क्रियाओं का हेतु नहीं हो पाता है, यह सिद्धान्त युक्तियों से सिद्ध कर दिया गया है। शून्यवादी और तत्त्वोपप्लववादी की स्थापनाएँ समीचीन नहीं है ___संसारी जीवों के अनादि काल से लगी हुई दुस्तर यह असत्य अविद्या ही 'संवेदनाद्वैत इष्ट है और पुरुषाद्वैत अनिष्ट है' ऐसा विभाग करती है। वास्तव में, वह अविद्या असत्य ही है किंतु उस अविद्या का आश्रय लेकर तत्त्वों की परीक्षा की जाती है। सम्पूर्ण ही वादी पण्डित तत्त्वों का निर्णय हो जाने के पहले कल्पित अविद्या को स्वीकार करते हैं। तथा निर्णय हो जाने पर दूसरे प्रकार से पदार्थों की व्यवस्था कर दी जाती है। भावार्थ- संवेदनाद्वैतवादी तत्त्वनिर्णय के पहले अविद्या से प्रमाण, प्रमेय,
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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