________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 357 अर्थक्रियासामान्यं निवर्तयतस्ताभ्यां तस्य व्याप्तत्वात् / अर्थक्रियासामान्यं तु यत्र निरतिशयात्मनि न संभवति तत्र बंधमोक्षाद्यर्थक्रियाविशेषः कथं संभाव्यते, येनायं तदुपादानहेतुः स्यात् निरन्वयक्षणिकचित्तस्यापि तदुपादानत्वप्रसंगात्। न चात्मनो गुणो भिन्नस्तदसंबंधतः सदा। तत्संबंधे कदाचित्तु तस्य नैकांतनित्यता // 118 // गुणासंबंधरूपेण नाशवणयुतात्मना / प्रादुर्भावाच्चिदादित्वस्थानात्व्यात्मत्वसिद्धितः // 119 // नापरिणाम्यात्मा तस्येच्छाद्वेषादिपरिणामेनात्यंतभिन्नेन.परिणामित्वात्, धर्माधर्मोत्पत्त्याख्या बंधसमवायिकारणत्वोपपत्तेरिति न मंतव्यं, स्वतोऽत्यंतभिग्नेन परिणामेन कस्यचित्परिणामित्वासंभवात्, अन्यथा रूपादिपरिणामेनात्माकाशादेः परिणामित्वप्रसंगात् / अर्थक्रिया को भी निवृत्त करा देते हैं। क्योंकि उन क्रम और योगपद्य से सामान्य अर्थक्रिया व्याप्त है। (व्यापक के निवृत्त हो जाने से व्याप्य भी निवृत्त हो जाता है) अनेक स्वभावों से विवर्त्त करना रूप अतिशयों रहित कूटस्थ या क्षणिक आत्मा में सामान्य रूप से अर्थक्रिया करना भी संभव नहीं है। उस अपरिणामी आत्मा में बँधना, छूटना, बंध का कारण मिथ्याज्ञान रूप हो जाना और मोक्ष का कारण तत्त्वज्ञान रूप हो जाना आदि विशेष अर्थक्रियाएँ कैसे सम्भव हो सकती हैं? जिससे कि यह आत्मा बंध आदिकों का उपादान कारण बन सके। यदि कूटस्थ नित्य आत्मा को भी बंध, मोक्ष आदि का उपादान कारण मानेंगे तो बौद्धों के माने गये निरन्वय क्षणिक विज्ञानरूप आत्मा को भी बंध, मोक्ष आदि का उपादान कारणपना हो जाने का प्रसंग आवेगा। आत्मा से सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ गुण उस आत्मा का नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उस गुण के साथ आत्मा का सर्वकालों में सम्बन्ध नहीं है। यदि ज्ञान आदि गुणों के साथ उस आत्मा का कदाचित् समवाय सम्बन्ध होना मानोगे, तब तो उस आत्मा के एकान्त रूप से नित्यता नहीं रहेगी। क्योंकि पहले के गुणों से सम्बन्ध नहीं रखने वाले आत्मा का नाश हुआ और गुणसमवायी स्वभाव से आत्मा का प्रादुर्भाव हुआ तथा चैतन्य, आत्मत्व, द्रव्यत्वं आदि धर्मों से आत्मद्रव्य की स्थिति रही। अतः इस हेतु से आत्मा का उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन स्वभावों से तदात्मकपना सिद्ध होता है। एकान्त रूप से आत्मा की नित्यता नहीं रहती है। 118-119 // (वैशेषिक) आत्मा सर्वथा अपरिणामी नहीं है। इच्छा, द्वेष, सुख, ज्ञान आदि चौदह गुणरूप सर्वथा भिन्न परिणामों के द्वारा वह आत्मा परिणामी है। और पुण्य-पाप की उत्पत्ति नामक बन्ध के समवायी कारणों की उत्पत्ति भी आत्मा के युक्तियों से सिद्ध हो जाती है। ग्रन्थकार कहते हैं कि वैशेषिकों को ऐसा नहीं मानना * चाहिए। क्योंकि अपने से सर्वथा भिन्न परिणामों के द्वारा किसी भी द्रव्य के परिणामीपना सम्भव नहीं है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार मानोगे (अर्थात् सर्वथा भिन्न परिणाम से भी चाहे किसी को परिणामी कहेंगे) तब तो रूप, रस आदि परिणामों से पुद्गल के समान आत्मा, आकाश, काल, मन इन द्रव्यों को भी परिणामी हो जाने का प्रसंग आयेगा। (यानी सर्वथा भिन्न ज्ञान का परिणामी पुद्गल और रूप का परिणामी आकाश हो जायेगा)। अत: सिद्ध हुआ कि आत्मा भिन्न परिणामों से परिणामी नहीं है। इसलिए वह बंध और बंध के कारण मिथ्याज्ञान का तथा मोक्ष और मोक्ष के कारण तत्त्वज्ञान का समवायी कारण नहीं हो सकता।