________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३५४ सम्यग्बोधस्य सदृष्टावंतर्भावात्त्वदर्शने / मिथ्याज्ञानवदेवास्य भेदे षोढोभयं मतम् // 112 // तत्र कुतो भवन् भवेत्यंत बंध: केन निवर्त्यते, येन पंचविधो मोक्षमार्गः स्यादित्यधीयते; तत्र मिथ्यादृशो बंधः सम्यग्दृष्ट्या निवर्त्यते। कुचारित्राद्विरत्यैव प्रमादादप्रमादतः // 113 // कषायादकषायंग योगाच्चायोगतः क्रमात्। तेनायोगगुणान्मुक्तेः पूर्व सिद्धा जिनस्थितिः // 114 // मिथ्यादर्शनाद्भवन् बंधः दर्शनेन निवर्त्यते, तस्य तन्निदानविरोधित्वात् / मिथ्याज्ञानाद्भवन् बंधः सत्यज्ञानेन निवर्त्यत इत्यप्यनेनोक्तं / मिथ्याचारित्राद्भवन्सच्चारित्रेण, प्रमादाद्भवनप्रमादेन, बंध और मोक्ष के कारण दोनों ही छह-छह प्रकार के भी मिथ्यादर्शन में मिथ्याज्ञान के अन्तर्भाव करने के समान सम्यग्दर्शन में सम्यग्ज्ञान को यदि गर्भित. करोगे तो बंध और मोक्ष के कारण पाँच प्रकार ही हैं। यदि इन दोनों का भेद मानोगे तो बंध और मोक्ष के कारण दोनों ही छह-छह प्रकार के हैं॥११२॥ इस प्रकरण में, संसार में किस कारण से अधिक बंध और किस कारण से बंध की निवृत्ति होती है? जिससे कि बंध के समान मोक्षमार्ग भी पाँच प्रकार का माना जाय, प्रतिवादी की ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य उत्तर देते हैं___ इस बंध-मोक्ष के प्रकरण में मिथ्यादर्शन नामक विभाव के निमित्त से होने वाला बंध तो सम्यग्दर्शन स्वभाव से निवृत्त हो जाता है और कुचारित्र से होने वाला बंध इंद्रियसंयम और प्राणिसंयमरूप विरति से नष्ट हो जाता है। प्रमादों से होने वाला बंध अप्रमाद से दूर हो जाता है। एवं कषायों के मंद उदय से होने वाला बंध चारित्रमोह के उपशम या क्षय रूप अकषाय भाव से दूर हो जाता है। अन्त में, योग से होने वाला बंध अयोग अवस्था से ध्वस्त कर दिया जाता है। अर्थात् इस प्रकार क्रम से पाँच बंध हेतुओं के भेद-प्रभेदों से होने वाली बंधों की पहले में सोलह, दूसरे में पच्चीस, चौथे में दस, पाँचवें में चार, छठे में छह, सातवें में एक, आठवें में छत्तीस, नौवें में पाँच, दसवें में सोलह और तेरहवें गुणस्थान में एक, इस प्रकार बंध योग्य 120 कर्मों की बंध-व्युच्छित्ति होने का नियम है अतः अयोग गुणस्थान से पीछे होने वाली मुक्ति के पहले तेरहवें गुणस्थान और चौदहवें गुणस्थान के काल में जिनेन्द्रदेव का संसार में स्थित रहना सिद्ध हो जाता है॥११३-११४ // मिथ्यादर्शन से होने वाला बंध सम्यग्दर्शन से निवृत्त कर दिया जाता है। क्योंकि वह सम्यग्दर्शन बन्ध के आदि कारण मिथ्यात्व का विरोधी है। इस कथन की सामर्थ्य से यह भी कह दिया गया है कि मिथ्याज्ञान से होने वाला बंध सम्यग्ज्ञान से निवृत्त हो जाता है। तथा मिथ्याचारित्र से होने वाला बंध सम्यक्चारित्र से नष्ट कर दिया जाता है। एवं प्रमाद से हुआ बंध अप्रमाद से नष्ट कर दिया जाता