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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 345 ततोऽन्यस्य मिथ्यात्वोदयासत्त्वेऽपि प्रवर्तमानस्य हिंसादेरसंयमत्वात् / न चासंयमाद्भेदेन मिथ्यासंयमस्योपदेशाभावादभेद एवेति युक्तं, तस्य बालतप:शब्देनोपदिष्टत्वात् ततः कथंचिद्भेदसिद्धेः। न हि चारित्रमोहोदरामात्राद्भवच्चारित्रं दर्शनचारित्रमोहोदयजनितादचारित्रादभिन्नमेवेति साधयितुं शक्यं, सर्वत्र कारणभेदस्य फलाभेदकत्वप्रसक्तेः। मिथ्यादृष्टयसंयमस्य नियमेन मिथ्याज्ञानपूर्वक त्वप्रसिद्धः, सम्यग्दृष्टेरसंयमस्य मिथ्यादर्शनज्ञानपूर्वकत्वविरोधात्, विरुद्धकारणपूर्वकतयापि भेदाभावे सिद्धांतविरोधात् / कथमेवं मिथ्यात्वादित्रयं संसारकारणं साधयत: सिद्धांतविरोधो न भवेदिति चेन्न, चारित्रमोहोदयेंतरंगहेतौ सत्युत्पद्यमानयोरसंयममिथ्यासंयमयोरेकत्वेन विवक्षितत्वाच्चतुष्टयकारणत्वासिद्धेः संसरणस्य। संयम हैं। तथा मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी का उदय न होने पर भी प्रवृत्ति करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि के हिंसा करने, झूठ बोलने, आदि की परिणति असंयमभाव है (अर्थात् यहाँ प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, गर्दा, निन्दा, अमूढदृष्टिता, वात्सल्य आदि गुण विद्यमान हैं। अतः यह असंयम पहले दोनों सम्यक् और मिथ्यासंयमों से भिन्न मिथ्याचारित्र और असंयम सर्वथा अभिन्न नहीं . किसी का आक्षेप है कि जीव के पाँच भावों में औदयिक असंयत भाव से भिन्न मिथ्या संयम का कहीं उपदेश नहीं है। अतः मिथ्याचारित्र और असंयम का अभेद ही मानना चाहिए। फिर चतुर्थ गुणस्थान में मिथ्याचारित्र और संयमीपन दोनों में से किसी एक को स्वीकार करना चाहिए। ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि असंयम से भिन्न माने गये उस मिथ्याचारित्र का छठे अध्याय में बालतपः शब्द से उपदेश किया है। अत: मिथ्याचारित्र और असंयम में किसी अपेक्षा से भेद है। (जैसे- दुःख, सुख, अदु:ख, नोदुःख अथवा संसार, असंसार, नोसंसार, त्रितयव्यपेत, ये अवस्थायें पृथक्-पृथक् हैं।) चारित्रमोहनीय कर्म के उदय मात्र से होने वाला चारित्र और दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होने वाला अचारित्र अभिन्न ही है। ऐसा सिद्ध करना शक्य नहीं है। अन्यथा सभी स्थानों पर कारणों का भिन्न होना कार्य के भेद को सिद्ध न कर सकेगा। चतुर्थ गुणस्थान के अचारित्र भाव में केवल चारित्रमोहनीय का उदय है और पहले गुणस्थान के अचारित्र में दर्शनमोहनीय सहित चारित्रमोहनीय का उदय है। ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं? मिथ्यादृष्टि का असंयम नियम से मिथ्याज्ञान पूर्वक प्रसिद्ध है और सम्यग्दृष्टि के असंयम को मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान का कारण मानकर उत्पन्न होनेपन का विरोध है। अतः दोनों एक नहीं है। विरुद्ध कारणों के पूर्ववर्ती होने पर भी उत्तर समय में उत्पन्न हुए कार्यों का यदि भेद होना न माना जावेगा तो सभी वादियों का अपने सिद्धान्त से विरोध हो जावेगा। (अर्थात् क्योंकि सभी परीक्षकों ने भिन्न-भिन्न कारणों के द्वारा न्यारे-न्यारे कार्यों की उत्पत्ति होना इष्ट किया है। अतः पहले का असंयम भाव और चौथे का असंयम भाव पृथक् है। ज्ञान में भी कुज्ञान से अज्ञानभाव भिन्न है।) शंका - मिथ्यादृष्टि का असंयम और असंयत सम्यग्दृष्टि का असंयम जब पृथक् है तो संसार के कारण चार हो जाते हैं। अतः मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीनों को ही संसार का कारणपना साधते हुए जैनों को अपने सिद्धांत से विरोध क्यों न होगा?
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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