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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 340 तेषां प्रसिद्ध एवाऽयं भवहेतुस्त्रयात्मकः। शक्तित्रयात्मतापाये भवहेतुत्वहानितः // 10 // य एव विपर्ययो मिथ्याभिनिवेशरागाद्युत्पादनशक्तिः स एव भवहेतुर्नान्य इति वदतां प्रसिद्धो मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मको भवहेतुर्मिथ्याभिनिवेशशक्तरेव मिथ्यादर्शनत्वान्मिथ्यार्थग्रहणस्य स्वयं विपर्ययस्य मिथ्याज्ञानत्वाद्रागादिप्रादुर्भवनसामर्थ्यस्य मिथ्याचारित्रत्वात्। ततो मिथ्याग्रहवृत्तशक्तियुक्तो विपर्ययः। मिथ्यार्थग्रहणाकारो मिथ्यात्वादिभिदोदितः // 103 / / न हि नाममात्रे विवादः स्याद्वादिनोऽस्ति क्वचिदेकत्रार्थे नानानामकरणस्याविरोधात् / तदर्थे तु न विवादोस्ति मिथ्यात्वादिभेदेन विपर्ययस्य शक्तित्रयात्मकस्येरणात् / इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि- इस प्रकार कहने वाले नैयायिक के दर्शन में संसार का कारण भी मिथ्यादर्शन आदि तीन रूप ही सिद्ध होता है। क्योंकि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र रूप संसार के तीन कारणों को न मानने पर अकेले विपरीत ज्ञान में भव के हेतु की हानि होती हैअर्थात् अकेला विपरीत ज्ञान संसार का कारण नहीं हो सकता। उन नैयायिकों के दर्शन में प्रमाणों से सिद्ध संसार का कारण भी मिथ्यादर्शन आदि तीन रूप ही है। तीन की सामर्थ्य न मानने पर अकेले विपर्यय में संसार के कारण की हानि हो जाती है।॥१०२॥ मिथ्याज्ञान ही त्रिरूप है जो विपर्यास ज्ञान झूठे आग्रह, रागभाव, आदिकों के उत्पन्न कराने की शक्ति रखता है, वही मिथ्याज्ञान संसार का कारण है। दूसरे, अन्त में होने वाला मिथ्याज्ञान संसार का कारण नहीं है। इस प्रकार कहने वाले नैयायिक के मत में भी यह प्रमाण से सिद्ध हो चुका कि संसार का कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र रूप है। क्योंकि विपर्यास में स्थित मिथ्या अभिनिवेश रूप शक्ति मिथ्यादर्शन है। असत्य अर्थों को हठ सहित जान लेना स्वयं विपर्यय रूप मिथ्याज्ञान है और विपर्यय में विद्यमान राग, द्वेष, आदि को प्रगट करने की शक्ति मिथ्याचारित्र है। इस प्रकार अभेद को ग्रहण करने वाली द्रव्य दृष्टि से तीन शक्ति युक्त मिथ्याज्ञान ही मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्ररूप है। इसलिए असत्य अन्धविश्वास, असत्य जानना और असत्य क्रिया करना इन तीन शक्तियों से या मिथ्या अभिनिवेश और मिथ्याचारित्र इन दो शक्तियों से सहित हो रहा विपर्यय ज्ञान ही मिथ्या अतत्त्व रूप अर्थों को ग्रहण करने का उल्लेख करता हुआ पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से मिथ्यात्व आदि यानी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीन भेद रूप कहा जाता है॥१०३ // ___अकेले शब्द का भेद हो जाने से केवल नाम में स्याद्वादी लोग विवाद नहीं करते हैं। क्योंकि किसी एक अर्थ में भी अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार के नाम कर लेने का कोई विरोध नहीं है। अर्थात एक पदार्थ का कतिपय नामों से वाचन हो सकता है, किन्तु उसके वाच्य अर्थ में कोई विवाद नहीं है। अत: तीन सामर्थ्यो से तदात्मक विपर्यय को नैयायिकों के द्वारा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के भेद से ही निरूपण किया गया है। ऐसा जानना चाहिए।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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