________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 337 अतस्मिंस्तद्ग्रहो विपर्ययः, स दोषस्य रागादेर्हेतुः, तद्भावे भावात्तदभावेऽभावात् / सोप्यदृष्टस्याशुद्धकर्मसंज्ञितस्य, तदपि जन्मनस्तदुः खस्यानेकविधस्येति मौलो भवस्य हेतुर्विपर्यय एव येषामभिमतस्तेषां तावदुद्भूततत्त्वज्ञानस्य योगिनः कथमिह भवे स्थितिघंटते कारणाभावे कार्योत्पत्तिविरोधान् ? संसारे तिष्ठतस्तस्य यदि कशिद्विपर्ययः। संभाव्यते तदा किन्न दोषादिस्तन्निबंधनः // 19 // समुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्याप्यशेषतोऽनागतविपर्ययस्यानुत्पत्तिर्न पुनः पूर्वभवोपात्तस्य पूर्वाधर्मनिबंधनस्य, ततोऽस्य भवस्थितिर्घटत एवेति सम्भावनायां, तद्विपर्ययनिबंधनो दोषस्तद्दोषनिबंधनं चादृष्टं तददृष्टनिमित्तं च जन्म, तजन्मनिमित्तं च दुःखमनेकप्रकारं किन्न संभाव्यते? न. हि पूर्वोपात्तो विपर्यासस्तिष्ठति न पुनस्तन्निबंधनः पूर्वोपात्त एव दोषादिरिति प्रमाणमस्ति तत्स्थितेरेव प्रमाणतः सिद्धेः। __ अतद्रूप में तद्रूप का ज्ञान होना ही विपर्यय ज्ञान है। वह विपर्यय ज्ञान राग-द्वेष, अज्ञान आदि दोषों का कारण है। क्योंकि विपर्यय ज्ञान के होने पर ही रागद्वेषादि होते हैं- और विपर्यय ज्ञान के नहीं होने पर नहीं होते हैं। वे रागद्वेष भी अशुद्ध कर्म हैं नाम जिनके ऐसे पुण्य-पाप रूप अदृष्ट के कारण हैं। वे पुण्य-पाप कर्म भी जन्म लेने के कारण हैं। और जन्म लेना अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का कारण है। इस प्रकार संसार का मूल कारण विपर्यय ज्ञान ही है। जैनाचार्य कहते हैं कि जिनका यह अभिमत है कि विपर्यय ज्ञान ही संसार का कारण है, उनके तत्त्वज्ञान होने पर उस योगी का संसार में स्थित रहना कैसे घटित हो सकता है? क्योंकि कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति का विरोध आता है। अर्थात् संसार का कारण विपरीत ज्ञान है और तत्त्वज्ञान के द्वारा विपरीत ज्ञान का नाश हो जाने पर उसी समय मोक्ष हो जाना चाहिए, तत्त्वज्ञान होने पर उनका संसार में रहना कैसे घटित हो सकता है? . संसार में रहने वाले उस योगी के कुछ विपर्यय ज्ञान का सद्भाव मान लेने पर तो दोषादि के कारणभूत विपर्यय ज्ञानं रहने पर रागद्वेषादि क्यों नहीं रहेंगे (अवश्य रहेंगे, समर्थ कारण अपने नियत कार्य को अवश्य उत्पन्न करेगा)॥९९॥ - नैयायिक कहते हैं कि समुत्पन्न तत्त्वज्ञानी के भी भविष्य में आने वाले विपर्यय ज्ञान का पूर्ण रूप से निरोध हो गया है। किन्तु पूर्व जन्मों में ग्रहण किये हुए अधर्म (पुण्य पाप) के कारण से उत्पन्न होने वाले विपर्ययों का उत्पाद होना नहीं रुका है। अत: उस पूर्व अदृष्ट पुण्य-पाप नामक कारणों से उत्पन्न विपर्यय ज्ञानों का उपभोग करते हुए इस योगी का संसार में कुछ दिन तक रहना घटित हो जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार योगी के संसार में रहने की संभावना होने पर उस योगी के विपर्यय ज्ञान के कारण रागादि दोष भी अवश्य उत्पन्न होंगे और उन दोषों को कारण पाकर अदृष्ट भी उत्पन्न होंगे। तथा अदृष्ट के निमित्त से जन्म और जन्म के निमित्त से अनेक प्रकार के दुःख भी उस योगी के क्यों नहीं संभव होंगे? अवश्य होंगे। पूर्व जन्म में संचित विपर्यास (मिथ्याभिनिवेश) के कारण योगी कुछ काल तक संसार में रहता हो और , विपर्यास के कारणभूत पाप, दुःख, दोष आदि योगी के नहीं हों, इसमें कोई प्रमाण नहीं है। अपितु उस विपर्यास की स्थिति से ही दोषादि का होना प्रमाण से सिद्ध होता है।