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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 331 तेनैव सह प्रादुर्भावानुषंगात् / क्षायिके तदन्तर्भावे क्षीणकषायस्य प्रथमे क्षणे तदुद्भूतेर्निद्राप्रचलयोञ्जनावरणादिप्रकृतिचतुर्दशकस्य च निर्जरणप्रसक्तेर्नोपांत्यसमये अन्त्यक्षणे च तन्निर्जरा स्यात्। दर्शनादिषु तदनन्तर्भावे तदावारकं कर्मान्तरं प्रसज्येत, दर्शनमोहज्ञानावरणचारित्रमोहानां तदावारकत्वानुपपत्तेः। वीर्यान्तरायस्तदावारक इति चेन्न, तत्क्षयानन्तरं तदुद्भवप्रसंगात् / तथा चान्योन्याश्रयणं-सति वीर्यान्तरायक्षये तन्निर्जरणशक्त्याविर्भावस्तस्मिंश सति वीर्यान्तरायक्षय इति। एतेन ज्ञानावरणप्रकृतिपंचकदर्शनावरणप्रकृतिचतुष्टयान्तरायप्रकृतिपंचकानां तन्निर्जरणशक्तेरावारकत्वेऽन्योन्याश्रयणं व्याख्यातम् / नामादिचतुष्टयं तु न तस्याः प्रतिबंधकम् / जाने से निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधि दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, इन प्रकृतियों की सत्ता एवं उदय व्युच्छित्ति करने की शक्ति भी बारहवें गुणस्थान के प्रथम क्षण में होनी चाहिए। उस बारहवें गुणस्थान के अन्त्य के निकटवर्ती उपान्त्य समय में निद्रा, प्रचला की और अन्त्य समय में ज्ञानावरणादि 14 प्रकृतियों की निर्जरा होनी चाहिए। ____ यदि दर्शन, ज्ञान, चारित्र में कर्मनिर्जरण शक्ति का अन्तर्भाव नहीं करेंगे (अर्थात् कर्मों की निर्जरा करने की शक्ति को इनसे पृथक् स्वतन्त्र गुण मानेंगे) तो उस शक्ति के आवरण करने वाले नौवें कर्म के मानने का प्रसंग आयेगा। क्योंकि दर्शनावरण, ज्ञानावरण और चारित्र मोहनीय के तो उस शक्ति को आवरण करने की अनुपपत्ति है- अर्थात् ये कर्म तो उस शक्ति का आवरण कर नहीं सकते। वीर्यान्तराय कर्म सम्पूर्ण कर्म-निर्जरण करने की शक्ति का आवरण करने वाला है, ऐसा भी ' कहना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर वीर्यान्तराय के क्षय होने के साथ ही उस शक्ति के प्रादुर्भाव का प्रसंग आयेगा और ऐसा होने पर अन्योऽन्याश्रय दोष भी आयेगा कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षय होने पर तो उन प्रकृतियों के क्षय करने की शक्ति का प्रादुर्भाव होगा और कर्मों के क्षय करने की शक्ति का प्रादुर्भाव होने पर वीर्यान्तराय कर्म का क्षय होगा। इस उक्त कथन के द्वारा ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों को, दर्शनावरण की चार प्रकृतियों को और अन्तराय की पाँच प्रकृतियों को उस निर्जरा करने की शक्ति का आवारक कर्म मान लेने पर भी अन्योऽन्याश्रय दोष आता है, ऐसा पहले कह चुके हैं। नाम, गोत्र, वेदनीय, आयु ये चार कर्म भी उस शक्ति के प्रतिबन्धक नहीं हैं।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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