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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 300 ब्रवीतु तत्प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तौ भवान्तराभावसिद्धेः / केवलज्ञानस्यानंतत्वाच्चारित्रादभ्यो न तु चारित्रस्य मुक्तौ तथा व्यपदिश्यमानस्याभावादिति चेत् / तत एव क्षायिकदर्शनस्याभ्यर्होऽस्तु मुक्तावपि सद्भावात् अनन्तत्वसिद्धेः। साक्षाद् भवान्तराभावहेतुत्वाभावाद्दर्शनस्य केवलज्ञानादनभ्यर्हे के वलस्याप्यभ्यर्हो माभूत् तत एव। न हि तत्कालादिविशेषनिरपेक्षं भवांतराभावकारणमयोगिकेवलिचरमसमयप्राप्तस्य दर्शनादित्रयस्य साक्षान्मोक्षकारणत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् / ततः साक्षात्परम्परया वा मोक्षकारणत्वापेक्षया दर्शनादित्रयस्याभ्यर्हितत्वं समानमिति न तथा कस्यचिदेवाभ्यर्हव्यवस्था येन ज्ञानमेवाभ्यर्हितं स्यात् दर्शनात् / नन्वेवं विशिष्टसम्यग्ज्ञानहेतुत्वेनापि दर्शनस्य ज्ञानादभ्यर्हे सम्यग्दर्शनहेतुत्वेन ज्ञानस्य दर्शनादभ्योस्तु श्रुतज्ञानपूर्वकत्वादधिगमजसद्दर्शनस्य, मत्यवधिज्ञानपूर्वकत्वान्निसर्गजस्येति चेन्न / दर्शनोत्पत्तेः पूर्व श्रुतज्ञानस्य मत्यवधिज्ञानयोर्वा अनाविर्भावात् / मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभंगज्ञानपूर्वकत्वात् उत्तर- इस प्रकार कहने वाले को 'चारित्र के ही पूज्यता है' ऐसा कहना चाहिए क्योंकि चारित्र की परम प्रकर्षता प्राप्त होने पर भवान्तर का अभाव सिद्ध ही है। यदि कहो कि केवलज्ञान अनन्त है अत: वह चारित्र की अपेक्षा पूजनीय है, चारित्र के पूज्यता नहीं है- क्योंकि मुक्त अवस्था में चारित्र के कथन का अभाव हैअर्थात् मुक्त अवस्था में चारित्र का व्यपदेश (कथन) नहीं है- परन्तु केवलज्ञान का कथन है इसलिए अनन्त होने से चारित्र की अपेक्षा ज्ञान पूजनीय है तो हम भी यह कह सकते हैं कि क्षायिक दर्शन सबकी अपेक्षा विशेष आदरणीय है- क्योंकि मुक्ति की अवस्था में क्षायिक दर्शन का सद्भाव होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन के अनन्तत्व सिद्ध ही है। यदि कहो कि साक्षात् भवान्तर के अभाव के हेतुत्व का अभाव होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन केवलज्ञान से अधिक पूजनीय नहीं है। तो "केवलज्ञान के भी भवान्तराभाव का साक्षात् हेतु न होने से पूज्यता नहीं होगी। क्योंकि साक्षात् भवान्तर के अभाव के हेतुत्व का अभाव दोनों में समान है। कालादि विशेष हेतु निरपेक्ष केवलज्ञान भवान्तर के अभाव का कारण नहीं हो पाता है क्योंकि अयोगकेवली (चौदहवें गुणस्थान) के चरम समय में प्राप्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों के ही साक्षात् मोक्ष का कारणत्व हैं, ऐसा आगे कहेंगे। इसलिए साक्षात् या परम्परा से मोक्षकारणत्व की अपेक्षा सम्यग्दर्शनादि तीनों के पूज्यता समान ही है, इसलिए किसी एक सम्यग्दर्शन आदि के पूज्यता की व्यवस्था नहीं है, जिससे दर्शन की अपेक्षा ज्ञान ही पूजनीय है, ऐसा सिद्ध किया जाय। शंका- यदि ऐसा है तो विशिष्ट सम्यग्ज्ञान के हेतुत्व से दर्शन के, ज्ञान की अपेक्षा पूज्य सिद्ध हो जाने पर, सम्यग्दर्शन का हेतुत्व होने से दर्शन की अपेक्षा ज्ञान के भी पूज्यता सिद्ध होती है, क्योंकि श्रुतज्ञान पूर्वक ही अधिगमज सम्यग्दर्शन होता है और मतिज्ञान और अवधिज्ञान पूर्वक निसर्गज सम्यग्दर्शन होता है अतः सम्यग्दर्शन का कारण ज्ञान होने से ज्ञान ही पूज्य है। उत्तर- ऐसा नहीं कहना, क्योंकि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के पूर्व श्रुतज्ञान, मतिज्ञान और अवधिज्ञान की उत्पत्ति का अभाव ही है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के पूर्व ज्ञान मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगावधि अज्ञान कहलाता है। तथा इस के मिथ्यात्व का प्रसंग भी नहीं है, क्योंकि इसमें मिथ्यात्व का प्रसंग मानने पर मिथ्याज्ञान पूर्वक होने से सम्यग्ज्ञान के भी मिथ्याज्ञान का प्रसंग आयेगा। अर्थात् मिथ्याज्ञान पूर्वक उत्पन्न यदि सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व है तो मिथ्याज्ञान से उत्पन्न होने से सम्यग्ज्ञान भी मिथ्याज्ञान हो जायेगा।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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