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________________ + 19+ विद्यानन्द की 'अष्टसहस्री' की अन्तिम प्रशस्ति में वीरसेनाख्यमोक्षगे चारुगुणानर्घ्यरत्नसिन्धुगिरिसततम् / सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपवनगिरिगह्वरायितु // कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात्।। शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था / / (नर्धा) यह श्लोक होने से कुमारसेन को इनका पूर्ववर्ती माना गया है। जिनसेन प्रथम के द्वारा ई. सन् 783 में रचित हरिवंश पुराण (भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण 1, 38 पृ. 5) में आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम्। गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् / / कुमारसेन का उल्लेखं होने से कुमारसेन का समय ई. सन् 783 के पूर्व का माना गया है। हरिवंश पुराण में विद्यानन्द जी का कहीं कोई उल्लेख न होने से यह माना गया है कि ई. सन् 783 तक इनकी ऐसी ख्याति नहीं थी जिससे पुराणकार इनका उल्लेख करता। ___ उक्त विद्वानों के अभिमत में आचार्य विद्यानन्द की रचनायें गंगनरेश शिवमार द्वितीय (ई. सन् 810) के राज्य काल में लिखी गई हैं। अत: आचार्य विद्यानन्दजी का समय ई. सन् 775 से ई. सन् 840 तक जानना चाहिए। 5. रचनाएँ आचार्य विद्यानन्द की दो तरह की रचनाएँ हैं- 1. टीकात्मक और 2. मौलिक। टीकात्मक रचनाओं में 1. तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिकालंकार (सभाष्य) 2. अष्टसहस्री-देवागमालंकार और 3. युक्त्यनुशासनालंकार हैं और मौलिक कृतियाँ हैं- 1. विद्यानन्दमहोदय 2. आप्तपरीक्षा 3. प्रमाणपरीक्षा 4. पत्रपरीक्षा 5. सत्यशासन परीक्षा 6. श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र। कुल 9 रचनाएँ प्रसिद्ध . (1) तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार सभाष्य - प्रस्तुत ग्रन्थ इसी का एक खण्ड है। (2) अष्टसहस्री-देवागमालंकार - स्वामी समन्तभद्रविरचित 'आप्तमीमांसा' अपरनाम 'देवागमस्तोत्र' पर लिखी गयी यह विस्तृत और महत्त्वपूर्ण टीका है। इसमें अकलंकदेव के 'देवागम' पर ही रचे गये दुरूह 'अष्टशतीविवरण' (देवागम भाष्य) को अन्त:प्रविष्ट करते हुए देवागम की प्रत्येक कारिका का व्याख्यान किया गया है। वास्तव में यदि विद्यानन्द आचार्य 'अष्टसहस्री' न बनाते तो 'अष्टशती' का गूढ़ रहस्य उसमें ही छिपा रहता क्योंकि अष्टशती का प्रत्येक पद, प्रत्येक वाक्य और प्रत्येक स्थल इतना दुरूह और जटिल है कि साधारण विद्वान् की तो उसमें गति ही नहीं हो सकती। अष्टसहस्री को आचार्यश्री ने जो 'कष्टसहस्री' कहा है, वह इस अष्टशती की मुख्यता से ही कहा है। 'अष्टसहस्री' श्लोकवार्तिक की तुलना का ही ग्रन्थ है। 'देवागम' में दस परिच्छेद हैं इसलिए
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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