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________________ +17+ 5. विलगीपक्तममंडननरपतिनरसिंहसंसदि समुद्बोधितः किल प्रभावो जैनमतस्य श्रीमविद्यानंदिप्रभुणा। 6. कारकलनगरस्थभैरवाचार्यराजपरिषदि जैनमतगौरवं प्रदर्श्य तत्प्रभावं विजभे श्रीविद्यानन्दिप्रभुः / 7. विदरीनगरनिवासिभावुकलोकेभ्यः श्रीमद्विद्यानंदिप्रभुणा स्वधर्मज्ञानप्राकर्येण सम्यक्त्वावाप्तिः कारिता। 8. यस्य नरसिंहराजात्मजकृष्णराजस्य संसदि नमतिस्म नरपतिसहस्रकं तस्यां परिषदि हे विद्यामंदिप्रभो त्वया समुधीपितो जैनधर्मः पराभूताश्च मत्तपरवादिनः / 9. कोप्पनाद्यनेकतीर्थक्षेत्रेषु कारयित्वा द्रव्यवैपुल्यं हे विद्यामंदिप्रभो त्वयार्हतधर्मः प्रभावितः। भूषितश्च श्रवणबेलगुलनगरस्थजैनसंघः कनकवसनादिप्रदापनतः विधाय च गेरसप्पानगरासनमुनिसंदोहसंघ स्वशिष्यमंडलं स विभूषितः। गौतमभद्रबाहुविशाखाचार्योमास्वामिसमंतभद्राकलंकादिविद्वांसो विजयतां भुवि सांमतभद्रभाष्य मंगलाचरणदेवागमोपरि विरचितं भाष्यं श्रीमदकलंकदेवेन। समजसतयाप्तमीमांसाग्रंथ विबोधयित्रे श्रीमद्विद्यानंदिने नमः। श्लोकवार्तिकप्रणेता कविचूडामणि तार्किकसिंहो विद्वान् यतिर्विद्यानंदी चिरं जीयाद्भुवि धरणीधर सन्निकृष्टोग्रतपस्वी ध्यानी मुनिः पात्रकेसर्येव समजनिष्ट नान्यः। षट्चत्वारिंशतमः शिलालेखः / 3. जीवन परिचय जैन ग्रन्थों में विद्यानन्द, विद्यानंदी ये दो नाम मिलते हैं। एक विद्यानन्दी भट्टारक का भी उल्लेख है। इन दोनों में वास्तविक नाम कौनसा है, इसको जानना कठिन है क्योंकि इनके जीवन के सम्बन्ध में प्रामाणिक इतिवृत्त ज्ञात नहीं है। आचार्यदेव की रचनाओं के अवलोकन से यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त के निवासी थे। इस प्रदेश को इनकी साधना और कार्यभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है। किंवदन्तियों के आधार पर यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस मान्यता की सिद्धि इनके प्रखर पाण्डित्य और महती विद्वत्ता से भी होती है। इन्होंने कुमारावस्था में ही वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनों का अध्ययन कर लिया था। इन आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त ये दिड्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध दार्शनिकों के मन्तव्यों से भी परिचित थे। शक संवत् 1320 के एक अभिलेख में वर्णित नन्दिसंघ के मुनियों की नामावली में विद्यानन्द का नाम प्राप्त कर यह अनुमान सहज में लगाया जा सकता है कि इन्होंने नन्दिसंघ के किसी आचार्य से दीक्षा ग्रहण की होगी। जैन वाङ्मय का आलोड़न-विलोड़न कर इन्होंने अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त किया। साथ ही मुनिपद धारण कर तपश्चर्या द्वारा अपने चारित्र को भी निर्मल बनाया। ___ इनके पाण्डित्य की ख्याति १०वी, ११वीं शती में ही हो चुकी थी। यही कारण है कि वादिराज * ने (ई. सन् 1055 में) अपने ‘पार्श्वनाथचरित' नामक काव्य में इनका स्मरण करते हुए लिखा है ऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विस्मयः। शृण्वतामप्यलङ्कारं दीप्तिरङ्गेषु रङ्गति // 28 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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