SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 221 तदिति कथं .फलज्ञाने प्रत्यक्षे करणज्ञानमप्रत्यक्षं? भिन्नं चेन्न करणज्ञानं प्रमाणं स्वार्थव्यवसायादातरत्वाद् घटादिवत् / कथंचिदभिन्नमिति चेन्न सर्वथा करणज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वं विरोधात् / प्रत्यक्षात्फलज्ञानात् कथंचिदभिन्नत्वात् / कर्मत्वेनाप्रतिभासमानत्वात्करणज्ञानमप्रत्यक्षमिति चेन्न, करणत्वेन प्रतिभासमानस्य प्रत्यक्षत्वोपपत्तेः। कथंचित्प्रतिभासते च कर्म च न भवतीति व्याघातस्य प्रतिपादितत्वात् / कथं चायं फलज्ञानं कर्मत्वेनाप्रतिभासमानमपि प्रत्यक्षमुपयन् करणज्ञानं तथा नोपैति न चेत्व्याकुलांत:करणः / फलज्ञानं कर्मत्वेन प्रतिभासत एवेति चेत् न, फलत्वेन प्रतिभासनविरोधात्। ननु च प्रमाणस्य परिच्छित्तिः फलं सा चार्थस्य परिच्छिद्यमानता, तत्प्रतीतिः कर्मत्वप्रतीतिरेवेति ___ यदि प्रमाणज्ञान से फलज्ञान को भिन्न मानते हो तो करणज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि घटादिक के समान वह करणज्ञान अपने और पर-पदार्थों के निर्णय करने वाले फलज्ञान से सर्वथा भिन्न है। जैसे फलज्ञान से सर्वथा भिन्न घटादिक तटस्थ पदार्थ प्रमाण नहीं हो सकते, वैसे ही फलज्ञान से सर्वथा भिन्न करणज्ञान भी प्रमाण नहीं हो सकता। ... यदि करणज्ञान को फलज्ञान से कथंचित् अभिन्न मानते हैं तो वह करणज्ञान सर्वथा अप्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। सर्वथा अभिन्न प्रत्यक्ष से युक्त करणज्ञान को अप्रत्यक्ष मानना विरुद्ध है। क्योंकि प्रत्यक्ष फलज्ञान से कथंचित् अभिन्न होने से वह प्रत्यक्ष होगा, अप्रत्यक्ष नहीं। : (मीमांसक) “जानना रूप क्रिया का जो कर्म होता है, वह प्रत्यक्ष होता है, परन्तु करणज्ञान ज्ञप्तिरूप क्रिया के कर्मरूप से प्रतिभासित नहीं है- अतः करणज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है" ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि जो ज्ञप्ति क्रिया का कर्म होता है वही प्रत्यक्ष होता है और जो ज्ञप्ति क्रिया का कर्म नहीं है, वह प्रत्यक्ष नहीं है। अर्थात् जो कथंचित् प्रतिभासता है वह कर्म नहीं होता है, ऐसा कहना पूर्वापरविरोध सहित है। _तथा- कर्म रूप से अप्रतिभासमान यह फलज्ञान प्रत्यक्ष हो सकता है और करणज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता है, ऐसा कहने वाला क्या अपने अन्तःकरण में व्याकुल नहीं है? अवश्य है। ..... फलज्ञान कर्मत्व रूप से प्रतिभासित है- ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि मीमांसक मत में कर्मत्व रूप से प्रतिभासित का फलरूप से प्रतिभास होने का विरोध है। (अर्थात् एकान्तवादियों के मत में फल और कर्म एक साथ नहीं रहते हैं। स्याद्वाद सिद्धान्त में कोई विरोध नहीं है।) . शंका- परिच्छित्ति (ज्ञप्ति) ही प्रमाण का फल है और अर्थ की परिच्छिद्यमानता (अर्थ को जानना) ज्ञप्ति है। उस परिच्छित्ति (ज्ञप्ति) क्रिया के द्वारा जो अर्थ की प्रतीति होती है, उसको ही ज्ञप्ति क्रिया के कर्मत्व की प्रतीति कहते हैं- अतः फलरूप परिच्छित्ति को कर्मत्व सिद्ध हो जाता है। ___उत्तर- जैनाचार्य कहते हैं कि प्रमाण के फलरूप वह परिच्छित्ति (ज्ञप्ति) अर्थ का धर्म है? यदि ज्ञप्ति को अर्थ का धर्म मानते हैं तो अर्थ के समान ज्ञप्ति भी पदार्थ का धर्म (स्वभाव) होने से प्रमाण का फल नहीं हो सकेगी। अर्थात् जैसे पुद्गल का धर्म कृष्ण आदि प्रमाण का फल नहीं है, वैसे ज्ञप्ति भी अर्थ का धर्म होने से प्रमाण का फल नहीं हो सकेगी। उसको प्रमाण का फल मानने पर विरोध आयेगा (क्योंकि ज्ञप्ति चेतन स्वरूप है, उसको अचेतन पदार्थ का धर्म मानना विरुद्ध है।)
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy