________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 219 अर्थपरिच्छेदे पुंसि प्रत्यक्षे स्वार्थाकारव्यवसायिनि सति निष्फलं करणज्ञानमन्यच्च फलज्ञानं, तत्कृ त्यस्यात्मनैव कृतत्वादिति तदकल्पनीयमेव / स्वार्थव्यवसायित्वमात्मनोऽसिद्धं व्यवसायात्मकत्वात्तस्येति चेत् न। स्वव्यवसायिन एवार्थव्यवसायित्वघटनात् / तथा ह्यात्मार्थव्यवसायसमर्थः सोऽर्थव्यवसाय्येवेत्यनेनापास्तं / स्वव्यवसायित्वमंतरेणार्थव्यवसितेरनुपपत्ते:कलशादिवत् / सत्यपि स्वार्थव्यवसायिन्यात्मनि प्रमातरि प्रमाणेन साधकतमेन ज्ञानेन भाव्यं / करणाभावे क्रियानुपपत्तेरिति चेत् न। इंद्रियमनसोरेव करणत्वात् / तयोरचेतनत्वादुपकरणमात्रत्वात् प्रधानं चेतनं करणमिति चेत् न। भावेंद्रियमनसोः स्व-पर अर्थ का निश्चय करने वाले आत्मा का यदि मीमांसक प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं तो दूसरे निष्प्रयोजन करणज्ञान और फलज्ञान को स्वीकार करना व्यर्थ है। क्योंकि उस ज्ञान से होने वाले कार्य को तो आत्मा ही कर देता है। अतः फलज्ञान और करणज्ञान की कल्पना करना व्यर्थ है, अकल्पनीय है, फलज्ञान और करणज्ञान की कल्पना ही मीमांसकों को नहीं करनी चाहिए। स्व और पर अर्थ का निश्चयात्मकत्व आत्मा के असिद्ध है, आत्मा का स्वरूप ही निश्चित है। (पदार्थों का निश्चय करना आत्मा का स्वभाव नहीं है अतः स्व पर अर्थ का निश्चयात्मकपना आत्मा के सिद्ध नहीं है।) मीमांसक का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि स्व का निश्चय करने वाले के ही अर्थ का निश्चय करना घटित हो सकता है। इस कथन से इस मत का भी खंडन हो जाता हैं- कि “आत्मा अर्थ के निश्चय करने में समर्थ है अतः वह अर्थ को ही निश्चय कर जान सकता है, स्व को नहीं" अर्थात् जो अर्थ का निश्चय करना तो मानते हैं परन्तु आत्मा स्व का निश्चय करता है, ऐसा नहीं मानते हैं- उनके कथन का भी उपर्युक्त कथन से निराकरण हो जाता है। क्योंकि अपना निश्चय किये बिना अर्थ का निश्चय करना सिद्ध नहीं होता है। जैसे घट, पट आदिक अपने को नहीं जानते हैं- अतः वे किसी अर्थ का निश्चय भी नहीं कर सकते हैं। मीमांसक मानते हैं कि स्व-पर अर्थ का निश्चय करने वाले प्रमाता (ज्ञाता) आत्मा के सिद्ध हो जाने पर भी ज्ञप्ति क्रिया का साधकतम प्रमाण (करण) ज्ञान तो अवश्य होना चाहिए। क्योंकि करणज्ञान के अभाव में क्रिया नहीं हो सकती है। जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि ज्ञप्ति क्रिया का कर्ता आत्मा है और उसके इन्द्रियों तथा मन का करणत्व विद्यमान है। इनसे भिन्न करण ज्ञान को मानना व्यर्थ है। इन्द्रिय-मन के अचेतन होने से उनके तो उपकरण मात्रता (सहायक कारणता) है। प्रधान करण तो चेतन आत्मा ही है, ऐसा भी मीमांसक का कहना युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में भावेन्द्रिय और भाव मन को चेतनात्मक रूप से व्यवस्थित माना है। अर्थात् जैन सिद्धान्त में कथंचित् भाव इन्द्रिय और भाव मन को चेतन माना है।