________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१८५ 6 // कालानंतर्यमात्राच्वेत्सर्वार्थानां प्रसज्यते। देशानंतर्यतोऽप्येषा किन्न स्कंधेषु पंचसु // 186 // भावाः संति विशेषाच्चेत् समानाकारचेतसाम्। विभिन्नसंततीनां वै किं नेयं संप्रतीयते॥१८७॥ यतश्चैवमव्यभिचारेण कार्यकारणरूपता देशानंतर्यादिभ्यो नैकसंतानात्मकत्वाभिमतानां क्षणानां व्यवतिष्ठते तस्मादेवमुपादानोपादेयनियमो द्रव्यप्रत्यासत्तेरेवेति परिशेषसिद्धं दर्शयतिः एकद्रव्यस्वभावत्वात्कथंचित्पूर्वपर्ययः। उपादानमुपादेयश्नोत्तरो नियमात्ततः // 18 // विवादापन्नः पूर्वपर्यायः स्यादुपादानं कथंचिदुपादेयानुयायिद्रव्यस्वभावत्वे सति पूर्वपर्यायत्वात्, यस्तु नोपादानं स नैवं यथा तदुत्तरपर्यायः / पूर्वपूर्वपर्यायः कार्यक्ष आत्मा वा तदुपादेयाननुयायिद्रव्यस्वभावो वा सहकार्यादिपर्यायो वा। यदि भाव प्रत्यासत्ति के कारण से पूर्वोत्तर संतान में कार्य-कारण भाव माना जायेगा तो एक घट को ही समान आकारधारी अपने भिन्न-भिन्न ज्ञानों से जानने वाले भिन्नसंतति (जिनदत्त, और देवदत्त) के ज्ञानक्षणों में यह कार्य-कारण (उपादान-उपादेय) भाव क्यों नहीं प्रतीत होता है। क्योंकि घटाकार ज्ञान की अपेक्षा जिनदत्त और देवदत्त का ज्ञान समान है॥१८६-१८७॥ - जिस कारण से निर्दोष एक संतान में इस प्रकार कार्य-कारण भाव माना है, वह देशप्रत्यासत्ति, कालप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्ति के द्वारा एकसंतान रूप से स्वीकृत स्वलक्षण पर्यायों का भी परस्पर में व्यभिचार रहित कार्य-कारण भाव व्यवस्थित नहीं हो सकता। इसलिए इस प्रकार द्रव्यप्रत्यासत्ति (द्रव्य की अखण्डता) से ही उपादेय-उपादान का नियम परिशेष न्याय से सिद्ध होता है। . भावार्थ- पर्यायों में परस्पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चार सम्बन्ध हैं। उनमें क्षेत्र, काल और भाव इन तीनों सम्बन्धों में तो व्यभिचार दोष आता है और परस्पर उपादान-उपादेय भाव द्रव्यप्रत्यासत्ति के कारण ही व्यवस्थित होता है। इस बात को आचार्य दिखाते हैं उस द्रव्यप्रत्यासत्ति के अनुसार एक अखण्डित अन्वितं द्रव्य का स्वभाव होने से कथंचित् पूर्व काल में होने वाली पर्याय उत्तर पर्याय की उपादान कारण है, और उत्तर काल में होने वाली पर्याय नियम से उपादेय है॥१८८॥ भावार्थ- अखण्ड जीव द्रव्य हर्ष, विषाद, सुख-दुःख, जन्म-मरण आदि पूर्वोत्तर में होने वाली अनन्त पर्यायों में अन्वय रूप से व्यापक है- जैसे पुद्गल गेहूँ, आटा, रोटी, वीर्य आदि अनन्त पर्यायों में अखण्ड रूप से व्यापक है। उनकी पूर्वोत्तर में होने वाली पर्यायें परस्पर में उपादान, उपादेय भाव से उत्पन्न होकर नष्ट होती रहती हैं परन्तु द्रव्य का नाश कभी नहीं होता है।