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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 169 न हि चित्रपटीनिरीक्षणे पीताद्याकाराचित्रवेदनस्य भिन्नदेशा न भवंति ततो बहिस्तेषां भिन्नदेशताप्रतिष्ठानविरोधात् / न ह्यभिन्नदेशपीताद्याकारानुकारिणचित्रवेदनाद्भिनदेशपीताद्याकारो बहिरर्थमित्र: प्रत्येतुं शक्योऽपीताकारादपि ज्ञानात्पीतप्रतीतिप्रसंगात् / पीताकारादिसंवित्तिः प्रत्येकं चित्रवेदना। न चेदनेकसंतानपीतादिज्ञानवन्मतम् // 164 // चित्रपटीदर्शने प्रत्येकं पीताकारादिवेदनं न चित्रज्ञान क्रमाद्भिनदेशविषयत्वात्तादृशानेकसंतानपीतादिज्ञानवदिति मतं यदि। सह नीलादिविज्ञानं कथं चित्रमुपेयते। युगपद्धाविरूपादिज्ञानपंचकवत्त्वया // 165 // अनेक रंग वाले चित्रपट को देखने में उस चित्रज्ञान के पीतादि आकार भिन्न-भिन्न देश में वृत्ति रखने वाले नहीं हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि उस चित्रपट से बाह्य (वास्तविक उद्यान या महल के) भिन्न देशवृत्ति रूप में उन आकारों (नील, पीत आदि आकारों) के प्रतिष्ठित रहने का विरोध होगा। अर्थात् वे एक ही ज्ञान में भिन्न-भिन्न देशों में रहते हुए दिख रहे हैं। ___ अभिन्न (एक ही) देश में पीतादि आकार का निरूपण करने वाले चित्रज्ञान से भिन्न पीतादि आकार वाले बाह्य पदार्थ को चित्र-विचित्र जानना शक्य नहीं है। अन्यथा अपीत (पीत रहित) आकार वाले ज्ञान से भी पीत की ज्ञप्ति होने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् ज्ञान के आकारों में भिन्नदेशता जैसे सिद्ध है, वैसें आत्मा के समान ज्ञान के आकारों में भी पृथक् विवेचन करना शक्य है। __पीतादि आकारों को जानने वाले एक-एक ज्ञान-व्यक्ति जैसे चित्रज्ञान नहीं है, वैसे एक ज्ञान में होने वाले नील-पीतादि आकार भी अकेले चित्रज्ञान नहीं हैं। किन्तु एक ज्ञान के समुदित आकारों का चित्र बन जाता है, वह चित्रज्ञान है॥१६४॥ . अनेक रंगों वाले चित्रपट को देखने पर पीत आदि आकारों को जानने वाले अनेक आकारों के ज्ञान में से एक आकार वाला प्रत्येक-प्रत्येक ज्ञानांश चित्रज्ञान नहीं है क्योंकि वे ज्ञान क्रम से भिन्नभिन्न देशों में स्थित नील पीत आदि को विषय करते हैं, अनेक संतान स्थित पीतादि ज्ञान के समान / अर्थात् जैसे भिन्न-भिन्न संतानों के नीलादि आकार वाले ज्ञान अकेले चित्रज्ञान नहीं हैं- क्योंकि भिन्नभिन्न संतान के ज्ञानों का समुदाय नहीं हो सकता है- परन्तु एक ज्ञान में समुदित आकारों के ज्ञान का नाम चित्रज्ञान है। बौद्ध के इस प्रकार कहने पर आचार्य प्रत्युत्तर देते हैं . यदि एक आत्मा की क्रमशः होने वाली सुखादि पर्यायों में एक अन्वयरूपता नहीं मानते हो तो एक साथ होने वाले रूपादि पाँच ज्ञान के समान एक साथ होने वाले नील पीतादि आकार वाले विज्ञान को बौद्ध चित्र ज्ञान कैसे स्वीकार करते हैं? // 165 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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