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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 151 बोधस्याबाह्यकरणज्ञानगोचरत्ववचनात् / द्वितीयपक्षे तु न बोधो देहगुणः स्वसंवेदनवेद्यत्वादन्यथा स्पर्शादीनामपि स्वसंविदितत्वप्रसंगात् / यत्पुनर्जीवत्कायगुण एव बोधो न मृतकायगुणो येन तत्र बाहोंद्रियाविषयत्वे जीवत्कायेऽपि बोधस्य तद्विषयत्वमापद्यतेति मतं / तदप्यसत् / पूर्वोदितदोषानुषंगात्। अभ्युपगम्योच्यते। जीवत्कायगुणोऽप्येष यद्यसाधारणो मतः। प्राणादियोगवन्न स्यात्तदानिंद्रियगोचरः॥१४१॥ जीवत्काये सत्युपलंभादन्यत्रानुपलंभानायमजीवत्कायगुणोऽनुमानविरोधात् / किं तर्हि? यथा प्राणादिसंयोगो जीवत्कायस्यैव गुणस्तथा बोधोऽपीति चेत्, तद्वदेवेंद्रियगोचरः स्यात् / न हि प्राणादिसंयोगः स्पर्शनेंद्रियागोचरः प्रतीतिविरोधात्। कशिदाह / नायं जीवच्छरीरस्यैव गुणस्ततः सकता। अन्यथा रूप-रसादि के भी स्वसंवेदनवेद्यत्व. (स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होने) का प्रसंग आयेगा जबकि रूपरस-आदि स्वसंवेदनवेद्य नहीं हैं। (चार्वाक) चैतन्य जीवित शरीर का गुण है, मृत शरीर का गुण नहीं, जिससे कि वहाँ चैतन्य में बाह्य इन्द्रियों का विषय न होने से जीवित शरीर में भी ज्ञान को उन बाह्य इन्द्रियों का विषयपना आपादन किया जाय। अर्थात् चैतन्य मृत शरीर का गुण भी नहीं है और बाह्य स्पर्शन आदि इन्द्रियों का विषय भी नहीं है, फिर भी जीवित- शरीर को गुण रूप से बाह्य इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि चार्वाक का यह कथन भी प्रशंसनीय नहीं है। इस कथन में पूर्वोक्त दोषों का प्रसंग आता है। क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञान को तो चार्वाक मानते नहीं हैं और चैतन्य इन्द्रिय ज्ञान का विषय नहीं है- अतः चार्वाकमत में चैतन्य की ज्ञप्ति कैसे हो सकती है? चार्वाक मत का विचार करके जैनाचार्य कहते हैं कि यदि चैतन्य को जीवित शरीर का असाधारण गुण माना गया है, तब तो प्राणवायु और आयुष्य कर्म के संयोग के समान वह चैतन्य मन-इन्द्रिय के गोचर नहीं होना चाहिए। क्योंकि शरीर के असाधारण कहे गये प्राणवायु, उदराग्नि, आयुष्य कर्म आदि संयोग रूप गुण अभ्यन्तर मनोजन्य ज्ञान के विषय नहीं हैं- वैसे आत्मा भी मनोजन्य ज्ञान का विषय नहीं होना चाहिए // 141 // शरीर के जीवित रहने पर ही चैतन्य की उपलब्धि होती है, जीवित शरीर से रहित घट आदि में चैतन्य की उपलब्धि नहीं होती है- अतः यह चैतन्य मृत शरीर का गुण नहीं है क्योंकि चैतन्य को मृत शरीर का गुण मानने में अनुमान से विरोध आता है। * शंका- चैतन्य किसका गुण है? उत्तर- जैसे प्राण (श्वासोच्छ्रास), चलना-फिरना आदि जीवित काय का गुण है वैसे चैतन्य (ज्ञान) भी जीवित शरीर का गुण है। चार्वाक के ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि प्राणवायु, वचन आदि के संयोग के समान चैतन्य-ज्ञानबोध भी यदि जीवित शरीर का गुण है तो वह प्राणादिक के समान इन्द्रियगोचर होना चाहिए। क्योंकि प्राण आदि इन्द्रियों के अगोचर नहीं हैं। प्राणादि को इन्द्रियों के अगोचर मानना प्रतीतिविरुद्ध है। अर्थात् सभी प्राणियों के प्राणादि इन्द्रियगोचर हो रहे हैं। यहाँ कोई (एकदेशीय चार्वाक) कहता है कि यह चैतन्य जीवित शरीर का ही असाधारण गुण नहीं है क्योंकि शरीर की रचना के पहले भी पृथ्वी, जल, तेज और वायु आदि में चैतन्य का सद्भाव था। अन्यथा
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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