SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 141 सूक्ष्मभूतविशेषश्चैतन्येन सजातीयो विजातीयो वा तदुपादानं भवेत्? सजातीयश्शेदात्मनो नामांतरेणाभिधानात्परमतसिद्धिः। विजातीयशेत् कथमुपादानमग्नेर्जलवत् / सर्वथा विजातीयस्याप्युपादानत्वे सैवादृष्टकल्पना। गोमयादेशिकस्योत्पत्तिदर्शनान्नादृष्टकल्पनेति चेत्, न वृशिक शरीरगोमययोः पुद्रलद्रव्यत्वेन सजातीयत्वात्, तयोरुपादानोपादेयतापायाच्च / वृशिकशरीरारंभका हि पुद्गलास्तदुपादानं न पुनर्गोमयादिस्तस्य सहकारित्वात् / सत्त्वेन द्रव्यत्वादिना प्रश्न- चार्वाक दर्शन में सजातीय सूक्ष्मभूतविशेष चैतन्य का उपादान होता है कि विजातीय सूक्ष्मभूतविशेष चैतन्य का उपादान होता है? उत्तर- यदि चैतन्य का सजातीय सूक्ष्मभूतविशेष आत्मा का उपादान है तब तो आत्मा का ही नामान्तर सूक्ष्मभूतविशेष का कथन होने से जैन सिद्धान्त की सिद्धि होती है। अर्थात् चैतन्य का सजातीय सूक्ष्मभूतविशेष आत्मा ही सिद्ध होता है, केवल नाम का अन्तर है, अर्थ का नहीं। यदि चैतन्य का विजातीय सूक्ष्मभूतविशेष आत्मा का उपादान है, ऐसा कहते हो तो जैसे विजातीय जल अग्नि का उपादान नहीं हो सकता है- तो फिर विजातीय सूक्ष्मभूतविशेष आत्मा का उपादान कैसे हो सकता है? यदि सर्वथा विजातीय पदार्थों को भी उपादान कारण मानोगे तो फिर तो यह अदृष्ट कल्पना है (जो प्रतीति से विरुद्ध है)। यदि चार्वाक यों कहे कि गोबर आदि से बिच्छू की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए जड़ से - (जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी रूप सूक्ष्मभूतविशेषों से) आत्मा की उत्पत्ति मानना अदृष्ट कल्पना नहीं है तो जैनाचार्य कहते हैं कि आपका इस प्रकार कहना उचित नहीं है क्योंकि बिच्छू का शरीर और गोबर इन दोनों में पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा सजातिपना है। इसलिए इन दोनों में शरीर और गोबर में उपादान उपादेय भाव है। परन्तु बिच्छू की आत्मा और गोबर का उपादान उपादेय भाव सर्वथा नहीं है। __अथवा- बिच्छू के शरीर की आरम्भक (उत्पन्न करने वाली) पुद्गलमय आहारवर्गणाएँ ही बिच्छू के शरीर को बनाने वाली उपादान कारण हैं। गोबर बिच्छू के शरीर का उपादान कारण भी नहीं हैवह दृश्यमान गोबर आदि तो शरीर का सहकारी कारण है। चार्वाक कहते हैं कि सत्त्व और द्रव्यत्व प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा सूक्ष्मभूतविशेष की चैतन्य के साथ सजातीयता होने से सूक्ष्मभूतविशेष को ही चैतन्य का उपादान माना गया है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो - पृथ्वी, जलादिक के भी परस्पर में उपादान, उपादेय भाव हो जाना चाहिए। क्योंकि उसके निवारक (रोकने वाले) का अभाव है। फिर पृथ्वी आदि चार तत्त्व न मानकर एक पुद्गल द्रव्य ही मानना चाहिए।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy