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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१३५ के नचिद्व्यभिचारचोदना हेतोः संभवति येन विशेषणमेके नेत्यादि प्रयुज्यते / संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वमपि नास्य शंकनीयं, कुत्रचिदभिन्नरूपे भिन्नप्रमाणवेद्यत्वासंभवात् / तादृशः सर्वस्यानेकस्वभावत्वसिद्धेरन्यथार्थक्रियानुपपत्तेरवस्तुत्वप्रसक्तेः / यदप्यभ्यधायि क्षित्यादिसमुदायार्थाः शरीरेंद्रियगोचराः। तेभ्यश्चैतन्यमित्येतन्न परीक्षाक्षमेरितम् // 110 // पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरेंद्रियसंज्ञाविषयः, तेभ्यश्चैतन्यमित्येतदपि न परीक्षाक्षमेरितं / शरीरादीनां चैतन्यव्यंजकत्वकारकत्वयोरयोगात् / कुतस्तदयोगः? व्यंजका न हि ते तावच्चितो नित्यत्वशक्तितः। क्षित्यादितत्त्ववद् ज्ञातुः कार्यत्वस्याप्यनिष्टितः॥१११।। नित्यं चैतन्यं शश्चदभिव्यंग्यत्वात् क्षित्यादितत्त्ववत्, शश्वदभिव्यंग्यं तत्कार्यतानुपगमात् / अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकेगा। तथा अर्थक्रियाकारी न होने से सर्व पदार्थों में अवस्तु का प्रसंग आयेगाअर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप न होने से सर्व पदार्थ अवस्तु हो जायेंगे। और भी जो चार्वाकों ने आत्मा को भिन्न तत्त्व निषेध करने के लिए कहा है किपृथ्वी आदि चार भूत चैतन्य के उत्पादक नहीं हैं - पृथ्वी आदि तत्त्वों के समुदाय रूप शरीर, इन्द्रियाँ और विषय ये पदार्थ हैं, इनसे चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। चार्वाकों का यह कथन भी परीक्षाक्षम नहीं है। अर्थात् परीक्षा करने पर खण्डित हो जाता है यों प्रेरणा की जा चुकी है।।११०॥ चार्वाकों के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इस प्रकार चार तत्त्व हैं। इन चारों तत्त्वों का समुदाय होने पर शरीर, इन्द्रियाँ और विषय नाम के पदार्थ उत्पन्न होते हैं। और इनसे उपयोगात्मक चैतन्य उत्पन्न होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि चार्वाकों का यह कथन परीक्षाक्षम (परीक्षा को झेलने में समर्थ) नहीं है। क्योंकि शरीर, इन्द्रिय और विषयों के चैतन्य के व्यञ्जकत्व (प्रकट करने वाला) वा चैतन्य के कारकत्व (करने वाला) का अयोग है। अर्थात् पृथ्वी आदि चार भूत चैतन्य के उत्पादक नहीं हैं। पृथ्वी आदि चैतन्य के उत्पादक क्यों नहीं हैं? ऐसी शंका होने पर कहते हैं.. वे शरीर, इन्द्रिय और रूप-रस आदि विषय आत्मा के व्यञ्जक नहीं हैं। क्योंकि शरीर आदिक को आत्मा का व्यंजक और कारक मान लेने पर पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के समान ज्ञाता (आत्मा) के भी नित्यपने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् जैसे पृथ्वी आदि चार तत्त्व नित्य हैं, उसी प्रकार पृथ्वी आदि चार तत्त्वों से प्रगट होने वाला आत्मा भी नित्य तत्त्व होगा। तथा अभिव्यक्ति पक्ष में (अर्थात् पृथ्वी आदि तत्त्वों से उत्पन्न होने वाला आत्मा पृथ्वी आदि का कार्य होगा परन्तु) चार्वाक ने आत्मा को कार्यपना इष्ट नहीं किया है। अर्थात् आत्मा को किसी का कार्य स्वीकार नहीं किया है॥१११॥ चैतन्य नित्य है, क्योंकि वह सर्वदा व्यञ्जकों (प्रगट करने वालों) के द्वारा योग्यतानुसार प्रगट होता है। जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये मूल तत्त्व नित्य हैं। तथा चैतन्य सर्वदा ही व्यंजकों के
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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