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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 123 विवेचयनानाद्रव्यांकारेषु पततीति तदविवेचनमस्तु। ततो यथैकज्ञानाकाराणामशक्यविवेचनत्वं तथैकपुद्गलादिद्रव्याकाराणामपीति ज्ञानवद्बाह्यमपि चित्रं सिद्ध्यत्कथं प्रतिषेध्यं येन चित्राद्वैतं सिद्ध्येत् / न च सिद्धेपि तस्मिन् / मार्गोपदेशनास्ति, तत्त्वतो मोक्षतन्मार्गादेरभावात् / संवेदनाद्वैते तदभावोऽनेन निवेदितः। प्रत्यक्षादिभिर्भेदप्रसिद्धः। तद्विरुद्धं च चित्राद्यद्वैतमिति सुगतमतादन्य एवोपशमविधेर्मार्गः सिद्धः / ततो न सुगतस्तत्प्रणेता ब्रह्मवत् / न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च मोचकः। न बंधोऽस्ति न वै मुक्तिरित्येषा परमार्थता // 99 / / न ब्रह्मवादिनां सिद्धा विज्ञानाद्वैतवत्स्वयम्। नित्यसर्वगतकात्माप्रसिद्धेः परतोऽपि वा // 10 // . न हि नित्यादिरूपस्य ब्रह्मणः स्वतः सिद्धिः क्षणिकानंशसंवेदनवत् / नापि परतस्तस्यानिष्टेः / नहीं हो सकता। अतः मणि का भी विवेचन करना अशक्य होगा। इसलिए जिस प्रकार एक ज्ञान के आकारों का भेद करना शक्य नहीं है उसी प्रकार एक पुद्गल या आत्मा आदि द्रव्य के रूप, रस, आदिक या ज्ञान सुख आदि आकारों का भी भेदकरण नहीं हो सकता। तथा च अंतरंग ज्ञान के चित्राद्वैत के समान, बहिरंग रूपाद्वैत, रसाद्वैत, शब्दाद्वैत, ज्ञानाद्वैत आदि चित्र (नाना) सिद्ध हो जायेंगे। अतः अनेक द्वैतों के सिद्ध हो जाने पर चित्राद्वैत कैसे सिद्ध हो सकता है? अथवा- चित्राद्वैत के सिद्ध मान लेने पर भी मोक्षमार्ग का उपदेश तो घटित नहीं हो सकता। क्योंकि अद्वैतवाद में मोक्ष और मोक्ष के मार्ग, उपदेशक आदि का अभाव है। ___ चित्राद्वैत में जैसे मोक्ष और मोक्ष का मार्ग घटित नहीं हो सकता, उसी प्रकार शुद्ध संवेदनाद्वैत में भी मोक्ष और मोक्षमार्ग घटित नहीं होता है। ऐसा निवेदन किया है अर्थात् अद्वैतवाद में मोक्ष और मोक्षमार्ग की व्यवस्था किसी प्रकार भी घटित नहीं हो सकती। तथा प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा घट-पट आदि पदार्थों की प्रसिद्धि हो जाने से चित्राद्वैत, संवेदनाद्वैत आदि का कथन प्रमाणविरुद्ध है। इसलिए सुगत मत से भिन्न सिद्धान्त में ही उपशम (शान्ति) विधि का मार्ग (उपाय) सिद्ध होता है। इसीलिए ब्रह्म के समान सुगत भी मोक्षमार्ग का प्रणेता नहीं है। अर्थात् जिस प्रकार ब्रह्माद्वैतवादी का सत्तारूप ब्रह्म मोक्षमार्ग का प्रणेता नहीं है, वैसे सुगत भी मोक्षमार्ग का प्रणेता नहीं है। . ब्रह्माद्वैतवाद में न किसी का नाश होता है और न किसी की उत्पत्ति होती है। न कोई जीव बँधा है और न कोई मुक्त है। इस प्रकार ब्रह्माद्वैतवादियों के मत में विज्ञानाद्वैतवादियों के समान मुक्ति आदि परमार्थ सत् नहीं हैं। अतः नित्य, सर्वव्यापक एकसत्ता रूप परम ब्रह्म स्वतः और परतः प्रसिद्ध नहीं हैं। क्योंकि वे ब्रह्म से अतिरिक्त किसी दूसरे पदार्थ को नहीं मानते हैं / / 99-100 // ... जैसे बौद्धों के क्षणिक और अंशों से रहित ज्ञानाद्वैत की स्वतः सिद्धि नहीं है, उसी प्रकार नित्यादि रूप ब्रह्म की स्वतः सिद्धि नहीं है। परतः (प्रत्यक्ष अनुमानादि प्रमाणों से) भी ब्रह्माद्वैत की सिद्धि नहीं होती है। क्योंकि ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त में परम ब्रह्म को छोड़कर अन्य वस्तु स्वीकार करना इष्ट नहीं है। अन्यथा यदि परम ब्रह्म को छोड़कर अन्य वस्तु को स्वीकार करते हैं तो द्वैतवाद का प्रसंग आता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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