________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 121 * चित्राद्यद्वैतवादे च दूरे सन्मार्गदेशना। प्रत्यक्षादिविरोधश्च भेदस्यैव प्रसिद्धितः // 18 // परमार्थतभित्राद्वैतं तावन्न संभवत्येव चित्रस्याद्वैतत्वविरोधात्। तद्वबहिरर्थस्याप्यन्यथा नानैकत्वसिद्धेः / स्यान्मतं / चित्राकाराप्येका बुद्धिर्बाह्यचित्रविलक्षणत्वात् / शक्यविवेचनं हि बाह्यं चित्रमशक्यविवेचना स्वबुद्धेर्नीलाद्याकारा इति। तदसत् / बाह्यद्रव्यस्य चित्रपर्यायात्मकस्याशक्यविवेचनत्वाविशेषाचित्रैकरूपतापत्तेः। यथैव हि ज्ञानस्याकारास्ततो विवेचयितुमशक्यास्तथा पुद्रलादेरपि रूपादयः। नानारत्नराशौ बाह्ये पद्मरागमणिरयं चंद्रकांतमणिशायमिति विवेचनं प्रतीतमेवेति चेत् / तर्हि नीलाद्याकारैकज्ञानेऽपि नीलाकारोऽयं चित्रादि अद्वैतवाद में सन्मार्ग की देशना देना कोसों दूर है। अर्थात् उनके सन्मार्ग की देशना घटित नहीं होती है। क्योंकि अद्वैतवाद में उपदेशक, उपदेश सुनने वाले और उपदेश के लिए उच्चरित शब्दों की व्यवस्था नहीं हो सकती है तथा उपदेशक आदि के भेद की प्रतीति प्रसिद्ध है- अतः प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा चित्रादि अद्वैतों की सिद्धि में विरोध भी आता है। अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाण से भेद की प्रतीति प्रामाणिक है, चित्रादि अद्वैत प्रामाणिक नहीं है।।९८।। - परमार्थ से चित्रादि अद्वैत का होना संभव ही नहीं है, क्योंकि चित्र के अद्वैत का विरोध है अर्थात् चित्र का अर्थ नाना या अनेक है और अद्वैत का अर्थ एक है- अत: चित्र को अद्वैत कहना स्ववचनबाधित है। उसी के (चित्र के) समान बहिरंग पदार्थों की भिन्नता (द्वैतता) प्रत्यक्ष प्रतीत हो रही है। अन्यथा (बहिरंग पदार्थों में द्वैत स्वीकार नहीं करने पर) नाना पदार्थों में एकत्व की सिद्धि होगी जो प्रत्यक्षविरुद्ध है। _ चित्राद्वैतवादी कहता है कि- 'अनेक आकारों को धारण करने वाली चित्रबुद्धि भी एक (अद्वैत) है। क्योंकि बुद्धि में बहिरंग विचित्र आकारों की विलक्षणता से अनेकत्व है। क्योंकि बाह्य चित्रों का विवेचन (पृथक्त्व) करना शक्य है। परन्तु स्वबुद्धि से नीलादि आकारों को पृथक् करना शक्य नहीं है। अर्थात् बाह्य घटपट आदि पदार्थ बुद्धि से पृथक् किये जा सकते हैं परन्तु स्वलक्षण नीलादि आकार बुद्धि से पृथक् नहीं किये जा सकते हैं। अतः चित्राकार से युक्त बुद्धि एक है। अब जैनाचार्य कहते हैं कि चित्राद्वैतवादी का यह कथन असत् (प्रशंसनीय नहीं) है। क्योंकि- नीलादि स्वलक्षण रूप अन्तरंग आकार को बुद्धि से पृथक् करना जैसे शक्य नहीं है उसी प्रकार चित्रपर्यायात्मक बाह्य द्रव्य का भी बुद्धि से पृथक् करना अशक्य है। क्योंकि बाह्य द्रव्य के आकार में और स्वलक्षण आकार में कोई विशेषता नहीं है। तथा रूपादिक को पुद्गल आदि से पृथक् करना शक्य नहीं है। क्या इतने मात्र से चित्राद्वैत की सिद्धि हो सकती है अर्थात् नहीं। चित्राद्वैतवादी कहता है कि बाह्य नाना रत्नराशि में “यह पद्मरागमणि है और यह चन्द्रकान्तमणि है" इस प्रकार का विवेचन (पृथक्त्व) प्रतीत होता ही है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने पर तो नीलादि आकार ज्ञान में भी यह नीलाकार है, यह पीताकार है' इस प्रकार विवेचन करना क्या प्रतीत नहीं होता है? अर्थात् चित्रज्ञान में भी भिन्न-भिन्न प्रतीति होती है।