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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 112 मा भूत्तच्छांतनिर्वाणं सुगतोऽस्तु प्रमात्मकः / शास्तेति चेन्न तस्यापि वाक्प्रवृत्तिविरोधतः॥८६॥ न कस्यचिच्छांतनिर्वाणमस्ति येन सुगतस्य तद्वत्तदापाद्यते निराम्रवचित्तोत्पादलक्षणस्य निर्वाणस्येष्टत्वात् / ततः शोभनं संपूर्ण वा गतः सुगतः प्रमात्मकः शास्ता मार्गस्येति चेत्। न। तस्यापि विधूतकल्पनाजालस्य विवक्षाविरहाद्वाचःप्रवृत्तिविरोधात् / विशिष्टभावनोद्भूतपुण्यातिशयतो ध्रुवम् / विवक्षामंतरेणापि वाग्वृत्तिः सुगतस्य चेत् // 87 // बुद्धभावनोद्भूतत्वादुद्धत्वं संवर्तकाद्धर्मविशेषाद्विनापि विवक्षाया बुद्धस्य स्फुटं वाग्वृत्तिर्यदि तदा स सान्वयो निरन्वयो वा स्यात् / किं चातः (वैभाषिक का दीपक के बुझने के समान) वह शान्त निर्वाण न सिद्ध हो, बुद्ध तो प्रमात्मक (प्रमाण ज्ञानस्वरूप) है। वह मोक्षमार्ग का शिक्षण करने वाला शास्ता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है- क्योंकि ज्ञानात्मक सुगत के भी (उपदेश देने हेतु) वचनों की प्रवृत्ति का विरोध है अर्थात् शरीर के बिना वचनों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है // 86 // हम (योगाचार का कथन है ) किसी खड्गी (उपसर्गी मुक्तात्मा) का सर्वथा निरन्वय नाश रूप निर्वाण नहीं मानते हैं जिससे कि उस खड्गी के समान बुद्ध को भी वैसा ही मोक्ष प्राप्त करने का आपादन किया जाता हो। क्योंकि बौद्धमत में सांसारिक वासनाओं के आस्त्रव से रहित हो रहे शुद्ध चित्त का अनन्त काल तक उत्पन्न होते रहना, निर्वाण इष्ट माना गया है। इसलिए भली प्रकार नाश हो जाना' सुगत का अर्थ नहीं मानते हैं- अपितु 'सु' शोभन, परिपूर्ण ज्ञान को प्राप्त ज्ञानस्वरूप सुगत मोक्षमार्ग का प्रकाशक है। ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि कल्पना जाल से रहित सुगत के बोलने की इच्छा रूप कल्पना नहीं हो सकती और इच्छा के बिना वचनों की प्रवृत्ति होने का विरोध है। (अतः सुगत मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दे सकता है।) ___ बोलने की इच्छा के बिना भी 'जगत् का उपकार करूँ' इस प्रकार की विशिष्ट भावना के सामर्थ्य से उत्पन्न हुए पुण्य के अतिशय से बुद्ध की वचन की प्रवृत्ति यथार्थ रूप से होती है।८७॥ "मैं बुद्ध हो जाऊँ" इस प्रकार की भावना से उपार्जित पुण्यविशेष से सुगत की बोलने की इच्छा के बिना भी स्पष्ट रूप से वचनों की प्रवृत्ति होती है ऐसा (योगाचार के) कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इच्छा के बिना भी पूर्वोपार्जित पुण्य से मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाला वह बुद्ध क्या द्रव्य रूप से अनादि अनन्त काल तक स्थिर रहने वाला अन्वयी द्रव्य है? अथवा अन्वय रहित होकर निरन्तर उत्पाद, व्यय स्वभाव वाला निरन्वयी द्रव्य? किंच, यदि द्रव्य रूप से बुद्ध को अनादि अनन्त काल तक स्थिर रहने रूप अन्वय सहित मानते हो तो परमत (जैनमत) की सिद्धि होती है। क्योंकि पुण्यविशेष से शोभित द्रव्यार्थिक नय से अनादि अनन्त काल तक रहने वाला तथा इच्छा के बिना मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाला जिनेन्द्रदेव ही है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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