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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१०१ यदनेकार्थविशेषणमित्येतदनेन निरस्तं / सर्वथैकस्य तथाभावविरोधसिद्धेरिति न परपरिकल्पितस्वभावः समवायोऽस्ति, येनेश्वरस्य सदा ज्ञानसमवायितोपपत्ते त्वं सिद्धयेत् / कीदृशस्तर्हि समवायोऽस्तु? ततोऽर्थस्यैव पर्यायः समवायो गुणादिवत्। __तादात्म्यपरिणामेन कथंचिदवभासनात् // 74 / / भ्रांतं कथंचिद्रव्यभेदेन प्रतिभासमानं समवायस्येति न मंतव्यं, तद्भेदैकांतस्य ग्राहकाभावात्। न हि प्रत्यक्षं तद्ग्राहकं तत्रेदं द्रव्यमयं गुणादिरयं समवाय इति भेदप्रतिभासाभावात् / नाप्यनुमानं लिंगाभावात् / इहेदमिति प्रत्ययो लिंगमिति चेत् / न। तस्य समवायितादात्म्यस्वभावसमवायसाधक त्वेन विरुद्धत्वात् / नित्यसर्वगतैकरूपस्य समवायेनानांतरीयकत्वात् / गुणादीनां द्रव्यत्वात्कथंचित्तादात्म्याभासनस्य द्रव्यपरिणामत्वस्य संयोग सम्बन्ध से घट, पट आदि अनेक देश-देशान्तरों के पदार्थों में विद्यमान रहते हैं। अतः एक होकर भी अनेक अर्थों के विशेषण होकर रहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार के वैशेषिकों के कथन का भी इस हेतु से खण्डन कर दिया गया है। क्योंकि सर्वथा एक के तथाभाव को (इस प्रकार अनेक में रहने को) विरोध की सिद्धि है। इसलिये वैशेषिक द्वारा कल्पित स्वभाव वाला समवाय पदार्थ सिद्ध नहीं होता है। जिस समवाय सम्बन्ध से कि ईश्वर का ज्ञान के साथ सदा से ही समवायीपना सिद्ध हो जाता और ईश्वर को ज्ञान स्वभाव वाला सिद्ध किया जाता। अर्थात् उस असिद्ध समवाय से ईश्वर में विज्ञता सिद्ध नहीं हो सकती है। . (वैशेषिक कहते हैं कि) फिर समवाय कैसा है? आचार्य कहते हैं कि जैसे रूप, रस और चलना, फिरना आदि गुणक्रियाएँ अर्थ की ही पर्यायें हैं, उसी प्रकार समवाय सम्बन्ध भी परिणामी द्रव्य की पर्यायविशेष है। क्योंकि कथंचित् तादात्म्य परिणाम से परिणमन करता हुआ प्रतिभासित होता है॥७४॥ द्रव्य से समवाय पदार्थ सर्वथा भिन्न दिख रहा है अतः समवाय का द्रव्य से कथंचिद् भेदाभेद स्वरूप परिणाम करके जैनों का ज्ञान भ्रमपूर्ण है, ऐसा (वैशेषिकों को) नहीं कहना चाहिए क्योंकि द्रव्य से सर्वथा भिन्न उस समवाय (पर्याय) को एकान्त रूप से भिन्न ग्रहण करने वाले प्रमाण का अभाव है। (पहला) प्रत्यक्ष प्रमाण तो समवाय और समवायी के भेद का ग्राहक नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा यह द्रव्य है, यह गुण है, यह क्रिया है, यह समवाय है, इत्यादि रूप से भेद के प्रतिभास का अभाव है। अर्थात् यह द्रव्य है, यह गुण है, द्रव्य गुण में सम्बन्ध कराने वाला समवाय भिन्न है, इस प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा नहीं होता है। (दूसरा) अनुमान ज्ञान भी अर्थ से भिन्न समवाय को नहीं जानता है, क्योंकि अनुमान के उत्पादक लिंग (अविनाभावी हेतु) का अभाव है। 'इस आत्मा में ज्ञान है, पुद्गल में रूप है' इस प्रकार का ज्ञान अर्थ से भिन्न समवाय को सिद्ध करने वाला लिंग है, ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि वह हेतु समवायियों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्वरूप समवाय का साधक है, नित्य एक सर्वव्यापी समवाय का साधक नहीं है। इसलिए यह हेतु समवाय सम्बन्ध रूप साध्य से विरुद्ध के साथ व्याप्ति रखने वाला होने से विरुद्ध हेत्वाभास है। इसमें यह है' इत्याकारक प्रतीति रूप हेतु नित्य सर्वगत (व्यापक) एकरूप समवाय के साथ अनान्तरीयक (अविनाभाव सम्बन्ध को नहीं रखने वाला) है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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