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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-८२ नृणामप्यघसंबंधो रागद्वेषादिहेतुकः / दुःखादिफलहेतुत्वादतिभुक्तिविषादिवत् / / 45 / / तद्विरोधिविरागादिरूपं तप इहोच्यते। तदसिद्धावतजन्मकारणप्रतिपक्षता॥४६॥ तदा दुःखफलं कर्म संचितं प्रतिहन्यते। कायक्लेशादिरूपेण तपसा तत्सजातिना // 47 // स्वाध्यायादिस्वभावेन परप्रशममूर्तिना। बद्धं सातादिकृत्कर्म शक्रादिसुखजातिना // 48 // . . केवलप्रतिबंधकस्यानागतस्य संचितस्य वात्यंतिकक्षयहेतू समग्रौ संवरनिर्जरे तपोऽतिशयात् कस्यचिदवश्यं भवत एवेति प्रमाणसिद्धं तस्य समग्रक्षयहेतुत्वसाधनं यतः। . जैसे अधिक भोजन करने से या विष आदि भक्षण करने से आत्मा में अनेक रोग वा संक्लेश भाव उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार आत्मा में रोग शोक आदि अनेक दुःखों-फलों के उत्पादक होने से मनुष्यों (प्राणियों) के पापों का सम्बन्ध रागद्वेषादि कारणों से होता है॥४५॥ - यहाँ जिन रागद्वेष अज्ञान आदि विभावों से कर्मों का बंध होता है, उन रागादिकों का विरोधी वैराग्य, आत्मज्ञान आदि रूप तप कहलाता है। उन वैराग्य आदि रूप तप की असिद्धि होने पर उनके विरोधी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि का विरोध भी नहीं होता है।४६ // अतः वीतराग विज्ञान आदि ही ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मों के और राग-द्वेष आदि भाव कर्मों के विरोधी वा निरोधक हैं। ___ कायक्लेशादि रूप तपश्चरण के द्वारा दुःख रूप फल देने वाले संचित कर्म (पापकर्म) नष्ट किये जाते हैं। अर्थात् अनशन आदि बाह्य तपश्चरण के द्वारा अशुभ कर्मों का नाश होता है। उस तप के परमप्रशम भाव रूप स्वाध्याय आदि अंतरंग तप के द्वारा इन्द्रपद आदि या उसी जाति के दूसरे सुख को देने वाले पूर्वबद्ध साता आदि प्रशस्त कर्मों का विनाश हो जाता है। अर्थात् तपश्चरण से शुभाशुभ कर्मों की निर्जरा होती है॥४७-४८॥ केवलज्ञान के प्रतिबन्धक अनागत (भविष्य के) और संचित पूर्वबद्ध कर्मों के अत्यन्त क्षय का कारण संवर और निर्जरा है। अर्थात् अनागत कर्मों का अभाव या निरोध संवर से होता है और संचित कर्मों का क्षय निर्जरा से होता है। किसी विशुद्ध परिणामी के तप के अतिशय से केवलज्ञान के प्रतिबन्धक अनागत और संचित कर्मों के संवर और निर्जरा अवश्य होते हैं। इस प्रकार प्रतिबन्धक कर्मों के सम्पूर्ण क्षय का कारणभूत साधन प्रमाणसिद्ध है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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