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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-७९ * ज्ञापकानुपलंभोऽस्ति तन्न तत्प्रतिषेधतः। कारकानुपलंभस्तु प्रतिघातीष्यतेऽग्रतः॥३७॥ तदेवं सिद्धो विश्वतत्त्वानां ज्ञाता, तदभावसाधनस्य ज्ञापकानुपलंभस्य कारकानुपलंभस्य च निराकरणात्। कल्मषप्रक्षयशास्य विश्वज्ञत्वात्प्रतीयते। तमंतरेण तद्भावानुपपत्तिप्रसिद्धितः॥३८॥ सर्वतत्त्वार्थज्ञानं च कस्यचित्स्यात् कल्मषप्रक्षयश न स्यादिति न शंकनीयं तद्भाव एव तस्य सद्भावोपपत्तिसिद्धेः। जायते तद्विधं ज्ञानं स्वेऽसति प्रतिबंधरि। स्पष्टस्वार्थावभासित्वानिर्दोषनयनादिवत्॥३९॥ कारक हेतु और ज्ञापक हेतु के भेद से हेतु दो प्रकार के होते हैं। अग्नि धूम की कारक (उत्पादक) हेतु है और धूम अग्नि का ज्ञापक हेतु है। सर्वज्ञ के ज्ञापक (जानने वाले) हेतु का अनुपलंभ है, ज्ञापक हेतु नहीं है, ऐसा तो नहीं कह सकते- क्योंकि इसका निषेध कर दिया है। अर्थात् सर्वज्ञ के ज्ञापक अनुमान आदि हेतु हैं। और सर्वज्ञ के कारकानुपलंभ का आगे खण्डन करेंगे। अर्थात् सर्वज्ञ के कारक तपश्चरण, ध्यान, सम्यग्दर्शनादि कारणों की प्रसिद्धि है। सम्यग्दर्शनादि के द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान उत्पन्न होता है अतः कारक हेतुओं का अनुपलंभ नहीं है॥३७॥ इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि विश्वतत्त्वों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) अवश्य है। क्योंकि उस सर्वज्ञ के अभाव के साधक ज्ञापक हेतु और कारकानुपलम्भ का निराकरण कर दिया गया है। ____ विश्वतत्त्व के ज्ञाता होने से सर्वज्ञ भगवान के सर्व कल्मष (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्म रूपी पापों) का क्षय निश्चित होता है। क्योंकि इन घातिया कर्मों का क्षय किये बिना सर्वज्ञता के सद्भाव की सिद्धि नहीं हो सकती है॥३८॥ किसी प्राणी (ईश्वरविशेष) को सर्व तत्त्वार्थों का ज्ञान तो हो सकता है, परन्तु सम्पूर्ण कर्मों का क्षय नहीं हो सकता है, ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि कर्मों का सद्भाव ही असर्वज्ञता के सद्भाव की उपपत्ति है। अर्थात् घातिया कर्मों का सद्भाव ही असर्वज्ञ के सद्भाव का द्योतक है। क्योंकि बिना कारण कार्य नहीं हो सकता। अतः घातिया कर्मों के नाश से सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है। सर्वज्ञता के प्रतिबन्धक अपने घातिया कर्मों का अभाव होने पर सम्पूर्ण पदार्थों का युगपत् ज्ञाता केवलज्ञान उत्पन्न होता है। वह केवलज्ञान निर्दोष नयन के समान स्पष्ट रूप से सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है। अर्थात् जैसे निर्दोष आँख सही पदार्थ को जानती है, उसी प्रकार केवलज्ञान सही पदार्थों को जानता है॥३९॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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