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________________ उसका स्रोत सुदूरवर्ती अतीत में से ही प्रवाहित होता आया है। वही कालान्तर में लिपिबद्ध होकर बहुत अंशों में अद्यावधि सुरक्षित है। यह सुनिश्चित है कि योग शासन के पुरस्कर्ता हिरण्यगर्भ ऋषभदेव ही है, जिनकी ऋग्वेदादि में स्तुतियाँ हैं। वेद सूक्तों पर सायणभाष्य तो अपेक्षतया अर्वाचीन है और यह सचाई है कि सायण ने श्री शंकर पूज्यपाद से प्रभावित और प्रेरित होकर वेद मंत्रों के अर्थ करने के कई जगह प्रयत्न किए हैं। वेद उपदेश ही नहीं, इतिहास भी है, उस इतिहास के साथ भारत की गौरवशाली प्राचीन गाथाएँ भी जुड़ी हुई हैं | वेगाथाएँ उन प्राचीन त्रेसठशलाका पुरुषों से जुड़ी हैं, जिनसे भारत के आलोकमय अध्याय बने। उनसे ही हमारी धर्म, संस्कृति और सारी विद्याओं के उत्स जुड़े हैं। तीर्थंकर और अर्हत्पुरुष वीतरागी और निम्रन्थ रहे, वे मात्र प्रवचन करते थे, अत: ग्रन्थ रचनाएँ नहीं की। जैन आगम तथा योग रचनाएँ बहुत बाद में उस सरस्वती काल में आरम्भ हुई जिसका पता मथुरा की कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त सरस्वती एवं जैन मूर्तियों से चलता है। इसके बाद तो दक्षिण और फिर उत्तर भारत के कई समर्थ आचार्यगणों ने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रणयन किए। आगमशास्त्र, निरुक्तियों आदि के अतिरिक्त योग विषयक रचनाओं में ध्यानशतक या ध्यानाध्ययन, ज्ञानार्णव, तत्त्वानुशासन, योगसारप्राभृत, योगमार्ग, योगामृत, आदिपुराण, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, तत्त्वार्थसूत्र तथा उसकी अनेक टीकाएँ, परमात्मप्रकाश, द्रव्यसंग्रह आदि के अलावा प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, रयणसार, अष्ट पाहुड, पंचास्तिकाय, समयसारकलश, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, आत्मानुशासन आदि दिगम्बर रचनाएँ हैं तथा योगसंदृष्टियाँ आदि, हेमयोगशासन आदि श्वेताम्बर रचनाएँ भी हैं। बाद की रचनाओं में समयसारनाटक, छहढाला, ब्रह्मविलास, अध्यात्मरहस्य, ध्यानोपदेश, चिदिलास, अनुभवप्रकाश, ज्ञानदर्पण तथा योगप्रदीप आदि अन्य दिगम्बर रचनाएँ हैं। प्रकट ही जैनों में विपुल योग तथा अध्यात्म साहित्य रचनाएँ हैं। इनमें वह चिन्तन पर्याप्त प्रस्तुत हुआ है जो मूलत: प्राचीन रहा है। यही कारण है योग के लक्ष्य, स्वरूप तथा मोक्षादि तत्त्व प्रतिपादन में जैनदृष्टि एकस्वरसे समान ही रहती आई है, जो इसकी विशिष्ट मौलिकता है। जबकि यह बात अन्य सम्प्रदायों में मोक्षादि अवधारणा के सम्बन्ध में नहीं देखी जाती। जैन अध्यात्म परम्परा में अब भी आचार्य एवं मुनिजनों का विहार है, यद्यपि सर्वज्ञ तीर्थंकरों का इस भूभाग में विहार नहीं है। यह परम्परा चाहे कई शाखाओं में विभक्त हो गई, पर फिर भी सिद्धान्तादि तथा योग तत्त्वों में मौलिक रूप से एक तथा समान है। समर्थ आचार्यगणों ने परम्परा से प्राप्त तीर्थंकर प्रवचन तथा ज्ञान को अवधारित करके 218
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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