________________ 3. योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में चारणऋद्धि के उपर्युक्त भेदों के अतिरिक्त श्रेणीचारण, धूमचारण, नीहारचारण, अवश्यायचारण, मेघचारण, वारिधाराचारण, ज्योतिरश्मिचार तथा वायुचारण आदि लब्धियों का उल्लेख भी मिलता है। आकाशगामित्व - आकाश में आने-जाने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होना। तपऋद्धि 1 तपऋद्धि के 7 भेद माने गये हैं - 1. घोरतप, 2. महातप, 3. उग्रतप, 4. दीप्ततप, 5. तप्ततप, 6. घोरगुणब्रह्मचारिता और 7. घोरपराक्रमता। __ घोरतप - सिंह, व्याघ्र, चीता, स्वापद आदि दुष्ट प्राणियों से युक्त गिरिकन्दरा आदि स्थानों में और भयानक श्मशानों में तीव्र आतप, शीत आदि की बाधा होने पर भी घोर उपसर्गों का सहना। महातप - पक्ष, मास, छहमास और एक वर्ष का उपवास करना अथवा मतिज्ञानादि चार सम्यग्ज्ञानों के बल से मंदरपंक्ति सिंहनिष्क्रीडित आदि सभी महान् तपों को करना। उग्रतप - पंचमी, अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करना तथा दो या तीन बार आहार न मिलने पर तीन, चार अथवा पांच उपवास करना। धवला तथा तिलोयपण्णत्ती में उग्रतपके दो उपभेद माने गये हैं - उग्रोग्रतप और * अवस्थिततप / दीक्षोपवास आदि को करके आमरणांत एक-एक अधिक उपवास को बढ़ाकर निर्वाह करना उग्रोग्रतप है। दीक्षा के लिए एक उवास करके पारणा करना, पुन: एक दिन के अन्तर से उपवास करके पारणा करना। इस प्रकार किसी निमित्त से एक उपवास के स्थान पर दो उपवास - (षष्ठोपवास) करना, फिर दो से विहार करते हुए अष्टम, दशम और दादश आदि के क्रम से उपवासों को जीवनपर्यन्त बढ़ाते जाना, पीछे न हटना, अवस्थित उग्रतप कहलाता है। दीप्ततप - शरीर से बाहर सूर्य जैसी कान्ति का निकलना। 5. तप्ततप - तपे हुए लौहपिण्ड पर गिरी हुई जल की बूँद की तरह आहार ग्रहण करते हुए आहार का पता न लगना अर्थात् आहार का पच जाना। 6. घोरगुणब्रह्मचारिता या अघोरब्रह्मचारित्व - मुनि के क्षेत्र में भी चोर आदि की बाधाएँ, काल महामारी और महायुद्ध आदि का न होना अथवा सब गुणों के आश्रय से महर्षि का ब्रह्मचारित्व अघोर (शान्त, अखण्डित) रहना। 1. तिलोयपण्णत्ती, 4/1049-57. - 213