________________ ति / 1. केवलज्ञान - चार घातिया कर्मों अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय कर्मों के क्षीण होने पर पूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति। 2. अवधिज्ञान - अवधिज्ञान रूपी (स्पर्श, गन्ध, रस, वर्णयुक्त) पदार्थों के त्रैकालिक पदार्थों को जानने की क्षमता। 3. मन:पर्याय - संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को सामान्य रूप से जानने की सामर्थ्य। बीजबुद्धि - सुने हुए ग्रन्थ के एक बीजपद को जानने से ही अनेक पदों और उनके अर्थों को जानने की क्षमता। 5. कोष्ठकबुद्धि - गुरु-मुख से एक ही बात स्मृत, श्रवित एवं पठित ज्ञान को अक्षरश: ग्रहण कर स्मृति में सुरक्षित रखने की क्षमता। 6. पदानुसारी - एक पद के आधार पर पूरे श्लोक या सूत्र को जान लेने की क्षमता। 7. संभिन्नसोत -प्रत्येक अंग से सुनने की क्षमता तथा सभी इन्द्रियों द्वारा एक दूसरे का कार्य करने की सामर्थ्य / 8. दूरस्वादित्व - जिह्वा इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों के विविध रसों को जान लेने की क्षमता।। 9. दूरदर्शित्व - चक्षुरिन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों में स्थित द्रव्यों को देखने की सामर्थ्य। 10. दूरस्पर्शत्व- स्पर्शनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों तक आठ प्रकार के स्पर्शों को जान लेने की क्षमता। 11. दूरघ्राणत्व - घ्राणेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों तक बहुत प्रकार के गंधों को ग्रहण करने की योग्यता। 12. दूरश्रवणत्व - श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजन पर्यन्त तक स्थित मनुष्यों-तिर्यञ्चों के अक्षर-अनक्षर रूप शब्दों को सुनने की सामर्थ्य। 13. दशपूर्वित्व - मुनियों के दशपूर्व के पढ़ने में 500 महाविद्याओं और 700 लघुविद्याओं के देवता आकर आज्ञा मांगते हैं। उस समय जो मुनि जितेन्द्रिय 210