________________ समझ ले तो वह पूर्व ऋषियों के प्रभावपूर्ण आदर्श को अपने अन्दर सहज ही उपस्थित पा सकता है। . इसके प्रभाव से जहाँ जितेन्द्रिय और मनस्वी सन्तानों का जन्म होगा, वहीं परिवार-नियोजन, संग्रहवृत्ति आदि अनेक समस्याएँ अनायास ही सुलझ जायेगी। ___आचार्य रामसेन के शब्दों में इसकी महिमा अतुलनीय है। वे कहते हैं कि - 'ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह का नाश करने वाला चरमशरीरी योगी तो उसी पर्याय से मुक्ति तक पा जाता है और जो चरमशरीरी नहीं है वे उत्तम देवादि की आयु को प्राप्त कर क्रमश: मुक्ति को प्राप्त करते हैं। यह ध्यान की ही अपूर्व महिमा है।'' धर्मध्यान का फल - ___ अन्त के दो ध्यान मोक्ष के कारण रूप में प्ररूपित किये गये हैं। अर्थात् संसारलता के मूलोच्छेद का हेतुभूत प्रशस्त ध्यान है और वह दो प्रकार का है - धर्म्य और शुक्ल। धर्म्यध्यान के फल का निरूपण करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है कि - 'उत्तम मनुष्य भव के सुख भोगकर पुन: भेदज्ञान (शरीरादिकसे आत्मा की भिन्नता) को उल्लंघन कर, संसास्के परिभ्रमण से विरक्त हो, रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को प्राप्त कर, दुर्धर तप कर तथा अपनी शक्ति के अनुसार धर्मध्यान और शुक्लध्यान को धारण कर और समस्त कर्मों का नाश कर, अविनाशी मोक्षपद को प्राप्त होता है। यह धर्मध्यान का परम्परारूप फल है।' __अर्थात् मनुष्य शुभध्यान के फल से उत्पन्न हुई स्वर्ग की लक्ष्मी को भोगते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। ___षट्खण्डागम के प्रसिद्ध टीकाकार एवं कलिकाल में सर्वज्ञ की उपमा को प्राप्त आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी धर्मध्यान के फल का निरूपण करते हुए लिखा है कि - 'अचरम शरीरियों को स्वर्ग और चरम शरीरियों को मोक्षप्रदायक है। अक्षपक जीवों को देवपर्याय सम्बन्धी विपुल सुख मिलना उसका फल है, और कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होना भी उसका फल है। जबकि क्षपक जीवों को तो असंख्यात गुणश्रेणी रूप से निर्जरा होती है और शुभकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना उसका फल है।'' ... 'चरमशरीरी ध्याता के मुक्ति का और उससे भिन्न अन्य ध्याता के भुक्ति का कारण बनता है, जिसने उस ध्यान से विशिष्ट पुण्य का उपार्जन किया है, ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह का नाश करने वाले चरमशरीरी योगी के उस भव में मुक्ति होती है और जो 1. तत्त्वानुशासन, 223-4. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 9/29. 3. ज्ञानार्णव, 41/26-7. 4. धवला, पुस्तक 13, पृ. 71 203