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________________ अध्ययन हेतु आपका मार्गदर्शन व आशीर्वाद रहा है। आपके श्रीचरणों का सान्निध्य मुझे जिनकी असीम कृपा से प्राप्त हुआ ऐसे पूज्य मुनिवर मार्दवसागर जी महाराज के श्री. चरणों मेंामना करता हूँ।आपका मेरे ऊपर विशेष अनुग्रह रहा है। मेरीधार्मिक शिक्षा का प्रारम्भ इन्हीं के अनुग्रह से हुआ। यद्यपि भाप मेरे अग्रज भी हैं वजीवनमार्गदर्शक भी। शोधसम्बन्धीकार्यों के लिये भी आपकासंनिधाना हीमुझेप्राणवायु की तरह कार्यकारी रहा।आपके द्वारा मेरे लिए किया गया परिश्रम एवं चिन्ता दोनों ही उक्रय न होने वाले उपकार के समाठा है। संघस्थ अन्य साधुओं में पूज्य मुनिश्री गुप्तिसागर जी महाराज, मुनिश्री समाधिसागर जी महाराज, मुनिश्री अभयसागर जी महाराज एवं मुनिश्री प्रवचनासागर जी महाराज का अनुग्रह भी मुझे इस कार्यकरपाठोकासंबल रहा। आज मुझे गौरवका अनुभव होरहा है कि मैं किसीजैनाचार्य पर शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर सका। किन्तु हमारा यह गौरव तब अनन्तगुणित होजाता है जबकु याद आता है कि यहाँ तक आने का श्रेय तो मेरे शिक्षा गुरु जगजगत् के निर्विवाद मान्य विद्वान् स्व. डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्यको है। उहाकीही असीम कृपा के कारण इस कार्य के लायक मैं हो सका। उनके प्रति विनयप्रणाम निवेदित करने में मुझे अति खुशी अनुभूत होती है। मेरे इस शोध कार्य के आधार स्तम्भ रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के संस्कृत-पालि-प्राकृत विभागाध्यक्ष श्रीमान् डा. राजेन्द्रकुमार त्रिवेदी का कुशल निर्देशन ही इसे कृतकार्य करने मेंपदे-पदेसाथ रहा। उनका हृदय से आभार व्यक्त कर पाने के लिए शब्दहीहीं है। हृदयसेहृदयकासम्बन्ध होठोपरही उसे एहसास किया जा सकता है। आपने अपठो व्यस्त समय में से समय निकाल करसदाही मार्गदर्शन एवं सामग्री का सूक्ष्म अवलोकन कर उसकी विषयवस्तु के साथ भाषा के परिष्कार एवं संशोधन तकमेंसहाय्य प्रदान किया है। इसी तरह जैठा जगत् के विधुत एवं गणितके विश्व्यातप्रोफेसर लक्ष्मीचन्दजेठा, जबलपुरका विशेष मार्गदर्शन ही मुझजैसे संबलहीन के लिए सहारा रहा। उभयनिर्देशकों का आभार व्यक्त कर पाने की सामर्थ्य कुझमें और शब्दों में नहीं। उठासे तो अपेक्षा होगी कि उनकी यह अनुकम्पा इसी तरह सदैव मेरा मार्गदर्शन करतीरहे। मार्गके अनेक उतार-चढावके दौरान पथिक राह चलने का विचार हीत्याग करने के लिए तत्पर हो जाता है। किन्तु कभी-कभी पथ में मिलते रहने वाले अन्य पथिकों के माध्यम से उसे पुन:पुनः अपने शौर्य एवं क्षमता की याद आती रहती है। जिससेवह उठा विचारों काहीत्याग करदेता है जिसके कारण वह पथगमन का विचार त्याग रहा था। एकदौरान ऐसा भी आया कि मैं अपने व्यक्तिगत कारणों से इस कार्यको (xvi)
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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