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________________ मन्त्र के महत्त्व एवं फल को निर्देशित करते हुए ज्ञानार्णवकार कहते हैं कि - 'यह मन्त्र महेश्वर - मन्त्रराज ज्ञान को बीज है, जगत् दारा वन्दनीय है, जन्म रूप अग्नि को शान्त करने के लिए मेघ है। प्रज्ञाशील पुरुष इसका ध्यान करे।' 'जिसने इस मन्त्र का एक बार भी उच्चारण कर लिया, हृदय में स्थापित कर लिया उसने मानो मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने में, अपनी यात्रा में पाथेय-संबल प्राप्त कर लिया।' 'जब यह मन्त्र मुनि के हृदय में अवस्थित होता है, तब तत्काल जन्म - मरण का अंकुर विशीर्ण हो जाता है। इस मन्त्र के ध्यान करने की विधि के विषय में आगे ग्रन्थकार लिखते हैं - 'धैर्यशील योगी कुम्भक प्राणायाम द्वारा इसे भौंहों के बीच में स्फुरित होते हुए, मुख कमल में प्रविष्ट होते हुए, तालुरन्ध्र से गमन करते हुए, अमृतबिन्दु टपकाते हुए, नेत्र की पलकों पर प्ररंफुरित होते हुए केशों पर टिकते हुए, ग्रहमण्डल में भ्रमण करते हुए, चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करते हुए, दिशाओं में संचरण करते हुए आकाश में उच्छलित होते हुए, कलंक पुंज को छिन्न करते हुए, संसार के भ्रम को हटाते हुए, परमस्थान - मोक्ष से योजित हुए तथा मोक्षलक्ष्मी से मिलाते हुए इस मन्त्र के स्वरूप का चिन्तन करे।'2 ध्याता के लिए निर्देश करते हुए आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि - 'ध्याता किसी अन्य की शरण न लेता हआ इसी में अपने मन को इस प्रकार तल्लीन करे कि स्वप्न में भी वह वहाँ से स्खलित न हो। ध्यान के इस विधिक्रम को जानकर साधक समस्त अवस्थाओं में नासिका के अग्रभाग पर या भूलताओं के मध्य में मन को टिकाए रहे।' . जिस तरह हं का ध्यान करने का निर्देश ज्ञानार्णव में दिया गया है उसी तरह अनेक बीजाक्षरों की आराधना का कथन भी किया है। जैसे ही या ॐ आदि। ॐ के विषय में पर्याप्त विवेचन वहाँ हुआ है। इसके ध्यान करने की विधि, फल एवं महत्त्व आदि की विस्तृत चर्चा की गई है। जैन परम्परा ही नहीं, अपितु वैदिक संस्कृति एवं श्रमणसंस्कृति दोनों में ही इसके विषय में विस्तृत चिन्तन होता रहा है। इसकी विविध रूपों में उत्पत्ति की संकल्पनाएँ भी की गई हैं। जैन योगपरम्परा में तो इसे महामन्त्र से उद्भूत ही माना है। कारण, इसमें महामन्त्र के पाँचों पदों के आद्य अक्षर समाहित होते हैं अथवा अ= ज्ञान, उ= दर्शन और म् = चारित्र के प्रतीक होने से यह मोक्षमार्ग के सम्पूर्ण स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। ॐ के ध्यान करने की विधि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि - इस ध्यान का 1. ज्ञानार्णव, 38/10-15. 2: वही, 38/16-19. 163
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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