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________________ कर्मस्थान कहा गया है।' आन का अर्थ है श्वाँस लेना और अपान का अर्थ है श्वॉस छोड़ना / इन्हें आश्वास-प्रश्वास भी कहते हैं। कर्मस्थान चालीस होते हैं और इन्हीं कर्मस्थानों की भावना कर सभी बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध तथा बुद्धश्रावकों ने विशेष फल प्राप्त किया था। प्राणायाम और जैनपरम्परा - जैन परम्परा में प्राणायाम के सम्बन्ध में आपेक्षिक दो मत मिलते हैं - एक अपेक्षा के अनुसार हठात् प्राण का निरोध करने से शरीर में व्याकुलता उत्पन्न होती है और मन भी विचलित हो जाता है, जिससे मन स्वस्थ तथा स्थिर नहीं रह पाता। अत्यधिक पूरक, कुम्भक और रेचक करने में परिश्रम करना पड़ता है, जिससे मन में अल्प संक्लेश पैदा होता है। दूसरी अपेक्षा के अनुसार प्राणायाम की प्रक्रिया से शरीर को कुछ देर के लिए साधा जा सकता है, रोग का निवारण किया जा सकता है, परन्तु साध्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता। इन मतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राणायाम किसी-न-किसी प्रकार साधना के एक साधन के रूप में अपेक्षित है। ज्ञानार्णव में एक और 'परमेश्वर' नामक प्राणायाम का भी उल्लेख मिलता है अर्थात् जो वायु नाभिस्कन्ध से निकलकर हृदय में आता है और वहाँ से चलकर ब्रह्मरन्ध्र अथवा तालुरन्ध्र में स्थित हो जाता है, उसे परमेश्वर प्राणायाम कहते हैं।' इस सन्दर्भ में वायु के अन्य चार प्रकार वर्णित हैं, जो कि नासिका विवर के क्रमश: चार मण्डलों से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे - 1. पुरन्दर - यह वायुपीला, उष्ण और स्वच्छ है और आठ अंगल नासिकासे बाहरतकरहता है। इस वायका सम्बन्ध पार्थिव मण्डल से है जो पृथ्वी के बीज से परिपूर्ण तथा वज्रचिह्न से युक्त है। 2. वरुण-यह श्वेत तथा शीतल है और नीचे की ओर बारह अंगुल तक शीघ्रता से बहता है। यह वरुणमण्डल के अन्तर्गत अक्षर 'व' के चिह्न से युक्त, अष्टमी के चन्द्रमा के आकार का होता है। 3. पवन - यह वायु काला तथा उष्णशीत होता है और छह अंगल प्रमाण बहता रहता है। यह वायव्य-मण्डल के अन्तर्गत गोलाकार, मध्यबिन्दु के चिह्न से व्याप्त, पवनबीज 'य' अक्षर से घिरा हुआ और चंचल होता है। 4. दहन - यह वायुलाल तथा उष्ण स्पर्श और बवण्डर की तरह चार अंगुल उँच्चा बहने वाला है। यह आग्नेय - मण्डल के अन्तर्गत त्रिकोण, स्वस्तिक चिह्नसे युक्त तथा अग्निबीज रेफ' चिह्न से युक्त होता है। 1. बौद्धधर्मदर्शन, पृ. 81., मज्झिमनिकाय, 2/2/2, 3/2/8., विसुद्धिमग्गो, पृ. 269. 2. योगशास्त्र, 6/4-5. 3. योगशास्त्र : एक परिशीलन, पृ. 41.. 4. ज्ञानार्णव, 26/47. 5. योगशास्त्र, 5/48-51. 6. वही, 5/42. 7. ज्ञानार्णव 26/47 8. ज्ञानार्णव 26/47 133
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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