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________________ मत्स्य से संयुक्त तालाब के समान भृकुटि रूप बेलों के विकार से रहित और अधरोष्ठ रूप नवीन पत्रों के सुन्दर संयोग से सहित करता है।' आसन की उपयोगिता - यौगिक क्रियाओं की निष्पन्नता अथवा चित्त-स्थिरता के लिए आसनों का महत्त्व है, क्योंकि आसन में शरीर तथा मन अन्य चेष्टाओं से रहित होकर किसी एक दशा में केन्द्रित हो जाते हैं। यही कारण है कि आसनों के द्वारा संकल्पशक्ति को विकसित करके वांछित परिणाम प्राप्त किये जाते हैं। अत: आसन, मन तथा शरीर दोनों को काबू में करके आत्मा को शक्तिशाली बनाने का साधन है और यही मन एवं शरीर पर अधिकार प्राप्त करना योग का आधार है। प्राणायाम - आसनसिद्धि के पश्चात् श्वास एवं प्रश्वास की नैसर्गिक गति का नियमन प्राणायाम कहलाता है। बाह्य वायु का नासिकारन्ध्र द्वारा अन्दर प्रविष्ट करना श्वास कहलाता है। कोष्ठस्थ वायु का नासिका से बाहर निष्कासन प्रश्वास कहलाता है। इन श्वास एवं प्रश्वासों की स्वाभाविक गति का रेचक, पूरक तथा कुम्भक द्वारा विच्छिन्न करना प्राण का आयाम अर्थात् नियन्त्रण प्राणायाम कहा जाता है। इस प्रकार प्राणवायु को दीर्घ, विशाल और लम्बा बनाने की साधना प्राणायाम की साधना है। पूरक प्राणायाम में श्वास का विच्छेद नहीं, अपितु सद्भाव ही होता है। इसी भाँति रेचक में प्रश्वास का सद्भाव होता है। केवल कुम्भक में श्वास एवं प्रश्वासों की अनियमित गति का विच्छेद होने के कारण, प्रत्येक प्राणायाम में उनका गति विच्छेदग्राह्य है। आसनजय होने से शारीरिक स्थैर्य एवं मानसिक शून्यवत् भावना या अन्य किसी समापन्न भाव की अनुभूति संभव होने के कारण तत्पूर्वक प्राणायाम का अभ्यास होता है। अतएव आसनजय के साथ ईश्वरभाव, आध्यात्मिक मर्मस्थान में ज्योतिर्मय भावादि का अभ्यास करना अपेक्षित है। उससे एकाग्रता होती है और तभी प्राणायाम समाधि में सहायक होता है। . प्राणायाम के भेद बताते हुए महर्षि पंतजलि ने कहा है कि वह प्राणायाम बाह्यवृत्ति, आभ्यन्तरवृत्ति और स्तम्भवृत्ति रूप होता है। फिर देश, काल तथा संख्या दारा परिदृष्ट होकर दीर्घ और सूक्ष्म होता है। गीता में भी इन्हीं भेदों को दर्शाया गया है। मनुष्य नाक और मुख से जो साँस लेता है, वह साँस प्राणवायु का ही अभिव्यक्त रूप है। इसलिए यदि स्थूल अभिव्यक्त वायु पर नियन्त्रण द्वारा प्राणवायु के नियंत्रण की यह क्रिया ही प्राणायाम के नाम से विख्यात है। 1. ज्ञानार्णव, 26/34, 36. 2. योगमनोविज्ञान, पृ. 190. 3. योगसूत्र, 2/49. 4. योगसूत्र 2/50. . 5. गीता, 4/29. . 131
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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