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________________ सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार - सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं - 1. शंका, 2. कांक्षा, 3. विचिकित्सा, 4. मिथ्यात्वियों की प्रशंसा और 5. मिथ्यादृष्टियों का संस्तव। सम्यग्दर्शन के विषयभूत सप्ततत्त्वों का विवेचन - जीव - ज्ञानी जनों ने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व कहे हैं। तीनों लोकों के मध्य में सदाकाल अनन्त जीव राशि विद्यमान है और वह दो भेद रूप है - सिद्ध और संसारी। इनमें सिद्ध जीव ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य सहित एक स्वभाव वाले हैं। जन्म-मरण आदिक सांसारिक क्लेशों से रहित हैं। संसारी जीव त्रस-स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। जो त्रस नामकर्म के उदय से चलने-फिरने में समर्थ होते हैं वे त्रस कहलाते हैं। किन्तु जो स्थावर नामकर्म के उदय से इच्छानुसार गमनागमन करने में असमर्थ होते हैं वे स्थावर कहे जाते हैं। स्थावर जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति इन भेदों से पाँच प्रकार के हैं। त्रस जीव दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी के भेद से अनेक प्रकार के हैं। सब संसारी जीव गति की अपेक्षा से चार भेदों में विभक्त हैं। हृदय में मोह या मूर्छा को धारण करने वाले वे सब संसारी जीव दुर्निवार कर्म के उदय से आरम्भ व प्रतारणा में संलग्न होकर नियम से परिभ्रमण कर रहे हैं। परन्तु उपर्युक्त पृथिवी आदि स्वरूप पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय - दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी ये सब एक मात्र तिर्यञ्चगति में ही होते हैं, अन्य किसी गति में वे नहीं पाये जाते हैं। जीव संकोच व विस्तार रूप धर्म से युक्त और दर्शन, ज्ञान लक्षणं सहित है और स्वयं कर्ता, भोक्ता तथा शरीर प्रमाण होकर अमूर्तिमान है। जीव स्वभाव से अमूर्तिक है। परन्तु वह अनादिकाल से कर्म के साथ एकमेक हो रहा है। इस दृष्टि से उसे मूर्तिक भी कहा जाता है। वह यद्यपि प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी लोक के बराबर है, फिर भी नामकर्म के उदय से जिस अवस्था में जो शरीर उसे प्राप्त होता है उसी के भीतर वह संकोच और विस्तार को प्राप्त होकर रहता है। उदाहरणार्थ - दीपक का प्रकाश यद्यपि असीमित है, फिर भी वह यथायोग्य छोटे-बड़े कमरे आदि को पाकर तत्प्रमाण ही रहता है। सांख्य प्रकृति को कम और पुरुष को भोक्ता मानते हैं। इसे लक्ष्य में रखते हुए यहाँ यह बतलाया गया है कि वह जीव स्वयं कर्ता भी है और स्वयं भोक्ता भी। 1. तत्त्वार्थसूत्र, 7/23. 3. वही, 2/10 2. वही, 1/4 4. तत्त्वार्थसूत्र, 2/12. 87.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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