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________________ नगर व्यापार-केन्द्र और व्यापारिक मण्डियों के रूप में विख्यात थे। जहाँ अनेक प्रकार के माल का आवागमन, विपणन और क्रय-विक्रय होता था। देशी-विदेशी व्यापार के लिए प्रसिद्ध व्यापारिक मार्गों का वर्णन भी आगम-ग्रन्थों में मिलता है। स्थल, जल और समुद्री मार्गों से व्यापार होता था। इन मार्गों से आयात-निर्यात होता था। अर्थोपार्जन के लिए लोग कठिन से कठिन मार्गों से भी व्यापार करने का साहस कर लेते थे। स्थल मार्गों की यात्राएँ स्थल-वाहनों से की जाती थीं, जिनमें गाड़ियाँ, शकट, रथ आदि का उपयोग होता था। जल-वाहनों में नौकाएँ, जहाज, पोत आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ग्रन्थों में वायु-मार्ग से आवागमन के उल्लेख भी मिलते हैं। वाहनों के निर्माण और मरम्मत का व्यवसाय भी होता था। आगम ग्रन्थों में उज्ज्वल और साहसी आर्थिक चरित्रों के अनेक आख्यान मिलते हैं। तत्कालीन भारतवर्ष की वाणिज्यिक गतिविधियों के बहुमूल्य दस्तावेज के रूप में उनका जीवन आगम के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित है। उपासकदशांग के दस श्रावकों के अलावा रोहिणी ज्ञात, माकन्दी सार्थवाह, धन्य सार्थवाह, समुद्रपालीय आदि नाम उल्लेखनीय हैं। अणुव्रत और समता __ शोध-प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में गृहस्थाचार का अर्थशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। गृहस्थ-जीवन का संचालन मुख्यत: व्यवसाय और वाणिज्य पर आधारित होता है। गृहस्थाचार के अधिकांश नियमों, व्रतों और अतिचारों का आर्थिक जीवन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। गृहस्थाचार के अन्तर्गत बारह व्रत और उनके साठ अतिचार और पन्द्रह कर्मादानों का अर्थिक विवेचन किया गया है। साठ अतिचारों का निषेध व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। मानवीय, सामाजिक हितों का ध्यान रखते हुए, राजकीय नियमों का पालन करते हुए, व्यक्ति की प्रतिष्ठा की सुरक्षा के साथ अर्थोपार्जन करने की पुनीत व्यवस्था गृहस्थाचार में विद्यमान है। गृहस्थाचार के बारह व्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुण व्रत और चार शिक्षाव्रत हैं। अणुव्रत यानि छोटे-छोटे व्रत, जो जीवन-निर्माण में सहायक बनते हैं। अणुव्रतों की ताकत इतनी है कि वे अणुबम की शक्ति को भी परास्त कर सकते हैं। वे व्यक्ति के पुनीत संकल्पों और प्रशस्त उद्देश्यों के साथ जुड़े हैं। उनमें सर्वत्र त्याग विद्यमान है, जो समतावाद की आधारशिला है। अहिंसा में समता की अनुभूति है, सत्य में समता का व्यवहार है, अचौर्य में समता की वेदना है, ब्रह्मचर्य (369)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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