________________ अनावश्यक वस्तुएँ जब आवश्यक बनने लगती है तो मनुष्य की आवश्यकताएँ भी असीम हो जाती है। इन असीम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक किसी भी प्रकार का माध्यम अपनाने में संकोच नहीं करता है। समाज में विचित्र किस्म के अपराध पनपते हैं। उपभोक्तावाद के सहायक के रूप में बैंकिंग व्यवसाय भी क्रेडिट कार्ड और तरह-तरह की ऋण सुविधाएं मुहैया कराता है। इस प्रकार के अनुबन्धों में निम्न-मध्यवर्गीय आदमी का जीवन बन्दी या बन्धक जैसा बनकर रह जाता है। वह अपने ही भोग और परिग्रह में उसी प्रकार उलझता है, जैसे स्वयं के द्वारा निर्मित जाले में मकड़ी फँसती है। ऐसे में मानव सहज स्वाभाविक जीवन से दूर कृत्रिम जीवन की ओर यानि अन्तहीन और अपरिचित परेशानियों की ओर बढ़ता है। उपभोक्तावाद की अपसंस्कृति से हमारे पारम्परिक, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों का हास हुआ है। मनोरंजन के साधनों में जो सामूहिक आनन्द था, उसका स्थान एकाकी सुख ने ले लिया। बाजार की भीड़ में व्यक्ति अकेला है। टेलीविजन के सामने परिवार और सम्बन्धियों के बीच भी वह अकेला है। देश-दुनिया की उसे खबर है, परन्तु अपनों और अपने पड़ौसियों से वह बेखबर है। नारी का चीर-हरण ___ जो नारी हमारी माँ, बहिन, बेटी, भार्या आदि रूपों में श्रद्धा, सम्मान और स्नेह की प्रतिमूर्ति हुआ करती थी, वह अब विज्ञापन और व्यवसाय की वस्तु है, मॉडल है। उम्र और अदाओं के मुताबिक उसके सौन्दर्य और यौवन की विभिन्न बाजारों में अलग-अलग कीमत है। दुखद आश्चर्य तो यह है कि नारी भी अपने वस्तु होने के धुआँधार प्रचार में अपना व्यक्तित्व खो बैठी। स्त्री-पुरुष समानता की बात करने वालों का भी न जाने क्यों स्त्री और पुरुष के निर्मानवीकरण की ओर ध्यान नहीं जा रहा है। आखिर, मनुष्य मनुष्य है; कोई मशीन या रोबोट तो नहीं। मीडिया भी अपने लाभ के लिए बाजारवाद की तरफदारी करता है। वह उन्हीं खबरों को तवज्जो देता है जो बिकाऊ हो। चाहे उनका असर समाज के चरित्र पर कैसा भी पड़े। मीडिया की खबरों में गरीबी, बेकारी, भुखमरी, पिछड़ापन और विषमता जैसी समस्याओं तथा अहिंसा, मानवता, दया, त्याग और सहयोग जैसे जीवन-मूल्यों का अभाव हैं। जबकि सेक्स, हिंसा, हत्या, आतंक, रोमांस, ऐश्वर्य और भोग-विलास जैसी चीजों की भरमार हैं। (344)