________________ ऐसा जानकर उन्होंने पूर्ववत् पुनः हलन-चलन शुरू कर दी। इससे सबके चेहरे खिल उठे। इस घटना पर वर्धमान संकल्प करते हैं कि माता-पिता के जीवित रहते वे प्रव्रज्या अंगीकार नहीं करेंगे। उनका यह संकल्प आज भी उन सबको प्रेरणाएँ देता है जो अपने माता-पिता और बड़े-बुजुर्गों की अवहेलना करते हैं। तीर्थंकर महावीर ने न सिर्फ अपने संकल्प को निष्ठा से निभाया, बल्कि उसे और आगे बढ़ाया। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद जब उन्होंने अपने अग्रज नन्दीवर्धन से दीक्षा की अनुमति चाही तो नन्दीवर्धन ने उन्हें कुछ समय और रुक जाने के लिए कहा। वर्धमान ने बड़े भाई की भावना का सम्मान करके भ्रातृत्व का परिचय भी दिया। माता-पिता और बड़े-बुजुर्गों की उपेक्षा तथा भाइयों के आपसी मनमुटव से अनेक कुटुम्ब टूट-बिखर जाते हैं और ऐसे कुटुम्ब के सदस्य जीवन के सच्चे सुख से वंचित होकर आत्म-वंचना में जीते हैं। वे जाने-अनजाने समृद्धि की सुखमय राह छोड़ देते हैं। बड़े-बुजुर्गों के अनादर से पारिवारिक-सामाजिक कष्ट बढ़ते हैं और अन्ततः उसका विपरीत असर आर्थिक-उन्नति पर भी होता है। भ. महावीर का जीवन प्रेम का अमर सन्देश देता है। संयमित जीवन ... भगवान महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रावक• श्राविका थे। इसलिए उनके परिवार में अहिंसा, संयम और तप की आराधना होती थी। दीक्षा से पूर्व गृहवास में महावीर का जीवन भी व्रत, नियम, संयम और सादगी से अनुप्राणित था। वे अचित्त जल और अचित्त आहार ग्रहण करते थे। रात्रिभोजन नहीं करते थे। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों का सहज और सूक्ष्म रूप से पालन करते थे। आचारांग में कहा गया कि गव्हस्थ जीवन के अन्तिम दो वर्षों में भगवान महावीर सचित्त जल नहीं पीते थे। उनका सारा व्यवहार क्रोधादि कषायों से रहित था। उनकी जीवन शैली में भोगवाद का अभाव था। अर्थशास्त्रीय दृष्टि से संयमित जीवन का बहुत मूल्य है। स्वावलम्बन की शिक्षा . . वर्धमान के वर्षीदान और वस्त्रदान की चर्चा पहले की जा चुकी है। साधना-काल में उनकी क्रान्तधर्मिता नये-नये रूपों में प्रकट होने लगी। प्रथम उपसर्ग के बाद देवराज इन्द्र भगवान से कहता है कि साधना-काल में आने वाले (303)