SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणांग के दस धर्म 1. ग्राम-धर्म : गाँव के प्रति अपने फर्ज को निभाना ग्राम धर्म है। भगवान महावीर उनके प्रथम नयसार के भव में 'ग्राम-चिन्तक' थे। जैनाचार्यों ने ग्राम-धर्म के समुचित परिपालन के लिए ग्राम के मुखिया 'ग्राम-स्थविर' की व्यवस्था के निर्देश भी दिये हैं। इन व्यवस्थाओं के तहत समस्त ग्रामवासी अपना और अपने गाँव का विकास सुनिश्चित करें। ग्राम-स्थविर की तुलना वर्तमान में 'ग्राम-सेवक' तथा सरपंच से की जा सकती है। गाँवों की उन्नति पर देश की उन्नति निर्भर है। 20वीं सदी के महानायक महात्मा गांधी ने ग्रामोन्नति पर बहुत जोर दिया। उन्होंने ग्राम-स्वराज का सपना देखा। पंचायती राज के माध्यम से उसे साकार करने की राह सुझाई। सदियों पूर्व आगम ग्रन्थों में इन व्यवस्थाओं के उपयोगी सूत्र हमें मिलते हैं। गाँव अर्थ-व्यवस्था की आधारभूत इकाई है। ग्राम कच्चे माल और प्राथमिक उद्योगों के केन्द्र होते हैं। कथित विकास की आंधी में भारत के आत्म-निर्भर और सक्षम गाँव आज कमजोर पड़ते जा रहे हैं। भगवान महावीर द्वारा सुझाये गये गृहस्थाचार के नियम ग्राम्य अर्थव्यवस्था को उत्कर्ष प्रदान करते हैं। 2. नगर-धर्म : जिस प्रकार गाँव के प्रति अपने फर्ज को निभाना ग्राम-धर्म है, उसी प्रकार नगर के प्रति अपने दायित्व निभाना नगर-धर्म है। जैन सूत्रों में ग्राम-स्थविर की भाँति नगर-स्थविर की व्यवस्था के उल्लेख मिलते हैं। जिनकी तुलना वर्तमान के नगर निगम तथा उसके सभापति से की जा सकती है। नगरवासियों का दायित्व अपने नगर के प्रति इसलिए भी अधिक बनता है कि वे ग्रामवासियों से अधिक विकसित अवस्था में जीवन यापन करते हैं। इसके अतिरिक्त नगरों का विकास गाँवों व ग्रामवासियों पर निर्भर है। नगरवासियों तथा नगर के निगम को चाहिये कि वे गाँवों के विकास के लिए अपने दायित्व को तय करें। निगम द्वारा कोई ऐसा नियम नहीं बने जिससे गाँवों या गाँवों के बाशिन्दों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव हो। दूसरों के विकास की कीमत पर अपना विकास किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होता है। 3. राष्ट्र-धर्म : राष्ट्र-धर्म के अनेक रूप होते हैं। जिस देश के नागरिक राष्ट्रीयता को अपने भावों के साथ संजोते हैं, वह देश अजेय होता है। उस पर किसी भी प्रकार के राजनैतिके, सांस्कृतिक और आर्थिक आक्रमण की आशंका व संभावना नहीं रहती है। राष्ट्रीय-नियमों, प्रतीकों आदि को लेकर जो राष्ट्रीय (220)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy