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________________ परिच्छेद दो दान, गृहस्थाचार और राष्ट्रधर्म सम्पूर्ण जैनाचार त्याग पर अवस्थित है। त्यांग के अनेक पक्ष होते हैं, उनमें दान की महिमा अपरम्पार है। आगम-साहित्य दान की महिमा से भरे पडे हैं। श्रमण परम्परा में जीवन साधना के सर्वोच्च शिखर पर बिराजमान तीर्थंकर को परमदाता बताया गया है। वे अभय का दान करने वाले, धर्म का दान करने वाले, चक्षु (ज्ञान) का दान करने वाले, बोध व बोधि देने वाले तथा सबको शरण और जीवन देने वाले हैं। इसीलिए वे लोकनाथ, लोकसूर्य, लोक में परमोत्तम तथा संसार के झंझावाती समुद्र में भटके-फँसे प्राणियों के लिए द्वीप के समान है। वर्षीदान तीर्थंकर दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष तक निरन्तर दान देते हैं, उसे ग्रन्थों में वर्षीदान या वार्षिक-दान के रूप में जाना जाता है। वे सूर्योदय से लेकर प्रात:कालीन आहार तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राएँ प्रतिदिन दान करते हैं। वर्ष भर में कुल 3 अरब, 88 करोड़, 80 लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान उनके द्वारा किया जाता है। आचारांग' और कल्पसूत्र में दीक्षा-पूर्व तीर्थंकरों के दान को सर्वस्व-त्याग कहा है। उनसे दान लेने वालों में सनाथ, अनाथ, भिक्षुक, रोगी, दरिद्र आदि सभी वर्गों, क्षेत्रों और श्रेणियों के लोग आते थे। सम्पन्न भी उनसे कुछ प्राप्त करने की अभिलाषा रखते। वे लोग (और अन्य सभी दान ग्रहणकर्ता) केवल दान ही नहीं, दान और सहयोग की प्रेरणा भी तीर्थंकर प्रभु से प्राप्त करते और अपने जीवन को त्याग व उदारता से सजाते-संवारते थे। ज्ञाताधर्मकथांग में तीर्थंकर मल्लि द्वारा किये गये वार्षिक दान का महत्व बताते हुए कहा गया है कि दीक्षा पश्चात् अणगार-जीवन में धर्म के चार व्यवहारिक अंगों में से तीन - शील, तप और भाव की आराधना तो हो सकती है, परन्तु दान-धर्म की विधिवत् आराधना गृहस्थ जीवन में ही सम्भव है। दान या उदारता की बुनियाद पर ही गृहस्थ-धर्म टिका हुआ है। वर्षीदान के द्वारा तीर्थंकर संसार को त्याग, उदारता, सहयोग आदि की प्रकर्ष प्रेरणा देते हैं। उनकी इस प्रेरणा का जितना आध्यात्मिक महत्त्व है, उससे कहीं अधिक उसका सामाजिक व आर्थिक मूल्य है। (212)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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