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________________ धर्मकथानुयोग और चरणकरणानुयोग में विद्यमान रहता है। ज्ञाताधर्मकथांग की कुछ कथाओं की विषय वस्तु तो ऐसी है कि उन्हें अर्थ-कथाएँ भी कह सकते हैं। उपासकदशांग के दसों ही श्रावकों का जीवन अर्थशास्त्रीय दृष्टि से समृद्ध था। उनकी समृद्धि के पीछे नीति, कर्तव्य और धर्म का अनूठा और प्रेरक सम्बल था। इन ग्रन्थों के अलावा अन्तगड, अनुत्तरोपपातिक, विपाकसूत्र आदि भी कथा प्रधान हैं। सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती आदि में भी अनेक रूपक और कथाएँ ऐसी हैं, जो अर्थशास्त्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यहाँ ऐसे ही प्रेरक चरित्रों में से कुछ पर एक विहंगम दृष्टिपात किया जा रहा हैं। रोहिणी ज्ञात छठवें अंग आगमं ज्ञाताधर्मकथा के सातवें अध्ययन में यह कथा आती है। राजगृह नगर के धन्य सार्थवाह के चार पुत्र थे - धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित। चारों ही नामों के साथ 'धन' शब्द जुड़ा होना प्रस्तुत सन्दर्भ में उल्लेखनीय बात है। उनकी पत्नियों के नाम थे - उज्झिता, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। जीवन की सांध्य वेला में धन्य सार्थवाह ने भविष्य का विचार किया कि उसके पश्चात् कौटुम्बिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ किया जाना चाहिये। उसने एक कार्यक्रम रखा। उसमें उसने अपने सगे-सम्बन्धियों, मित्रों और परिचितों को आमंत्रित किया तथा सबके समक्ष चारों पुत्रवधुओं को बुलाकर प्रत्येक को चावल के पाँच-पाँच दाने दिये और कहा कि - 'मेरे मांगने पर ये पाँच दाने वापस लौटाना।' ___ उज्झिता ने सोचा कोठार में ढेर सारे चावल हैं। श्वसुरजी जब भी मांगेंगे, दे दंगी। यह सोच उसने चावल के उन पाँच दानों को एकान्त में डाल दिया। भोगवती ने पाँचों शालि के दानों को छीला और छील कर खा गई। तीसरी बहू रक्षिका ने विचार किया कि श्वसुरजी ने समारोह पूर्वक ये पाँच दाने पुनः लौटाने की हिदायत के साथ दिये हैं। निश्चित ही इसका कोई अर्थ होना चाहिये। उसने पाँचों दानों को डिब्बी में संभाल कर रख लिया। चौथी बहू रोहिणी ने सोचा - 'इस प्रकार पाँच दाने देने में अवश्य ही कोई रहस्य होना चाहिये। इसलिए मेरे लिए यह उचित है कि चावल के इन पाँच दानों का संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करूँ।' ऐसा विचार करके उसने अपने कुलगृह के सदस्यों को बुलाया और उन्हें उन पाँच शालि-अक्षतों को दिया और कहा कि इन पाँच शालि-अक्षतों को अलग क्यारी में (165)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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