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________________ पापा कुणाल चेदि . शुक्तिमती सिंधु-सौवीर वीतिभय 'शूरसेन मथुरा भंगि वट्टा मासपुरी श्रावस्ति लाढ़ कोटिवर्ष केकयी अर्ध श्वेतिका इन जनपदों की जो राजधानियाँ हैं, उनमें से अधिकांश तत्कालीन समय के मुख्य व्यावसायिक केन्द्र थे। जो स्थल और जल मार्ग से देश-विदेश से जुड़े हुए थे। प्रश्नव्याकरण सूत्र24 में आठ प्रकार के व्यापार केन्द्रों का वर्णन है - 1. गम्म (ग्राम) : आगम साहित्य में ग्राम की अनूठी परिभाषा मिलती है। जहाँ के निवासियों को अठारह प्रकार का कर चुकाना पड़ता हो, वह ग्राम है। यह परिभाषा प्राचीन भारत के गाँवों की व्यावसायिक समृद्धि का बड़ा प्रमाण है। जो वर्तमान के भारतीय गाँवों के लिए दूर की कौड़ी है। 2. आकर : स्वर्ण, रजत और धातुओं के उत्खनन क्षेत्र को आकर कहा गया है / निश्चित तौर पर ये उत्खनन क्षेत्र वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियों के केन्द्र थे। 3. नगर : 'नत्थेत्थ करो नगरं' जहाँ अठारह प्रकार के कर न लगते हो उसे नगर (न+कर) कहां गया है। ग्राम और नगर की उपर्युक्त परिभाषाएँ अद्भुत है। बेशक, नगर में अन्य प्रकार के कर लगते होंगे। * 4. निगम : जहाँ बड़ी संख्या में व्यापारी व्यापार के लिए बसते हो, उस स्थान को निगम कहा गया है। वर्तमान के आर्थिक क्षेत्रों या उद्योग-विहारों से इनकी तुलना की जा सकती है। 5. खेड/खेत्त : कृषि ग्रामों/नगरों को खेड़ कहा गया है। आज भी खेतिहर बहुल ग्रामों के साथ खेड़ा शब्द जुडा रहता है। 6. कब्बड़गया कर्वत : जिन स्थानों पर लघु स्तर पर व्यापारिक गतिविधियाँ हो .... उन्हें कर्वत कहा गया है। (149)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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